शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के 109वें जन्मदिवस (28 सितम्बर) के अवसर पर
भगतसिंह तुम ज़िन्दा हो, हम सबके संकल्पों में!
प्यारे भाइयो, बहनो और साथियो!
‘ख़ुराक जिस पर आज़ादी का पौधा पलता है वह होती है शहीदों का खून’ ये शब्द थे भगतसिंह के अनन्य साथी भगवतीचरण वोहरा के। निश्चित तौर पर हमारे महान शहीदों ने आज़ादी के पौधे को अपने लहू से सींचा था। देश की आज़ादी के लिए मर-मिटने वाले शहीद भगतसिंह के लिए किस देशवासी का दिल नहीं धड़कता! 28 सितम्बर 2016 के दिन भगतसिंह के जन्म को 109 वर्ष पूरे हो जायेंगे। भगतसिंह की बहादुरी और कुर्बानी के बारे में तो पूरा देश जानता है, लेकिन ज़्यादातर -पढ़े-लिखे लोग तक- यह नहीं जानते कि सिर्फ़ 23 साल की उम्र में फाँसी का फन्दा चूमने वाला यह जाँबाज नौजवान एक महान, दूरन्देश विचारक भी था, जो केवल अंग्रेजी हुकूमत और विदेशी पूँजीपतियों की लूट के ही नहीं बल्कि देशी पूँजीपतियों की हुकूमत और लूट के भी ख़िलाफ़ था। भगतसिंह और उनके साथियों के लिए आज़ादी की लड़ाई का मतलब था; क्रान्ति के द्वारा मेहनतकश जनता का राज स्थापित करना, जिसमें उत्पादन, राजकाज और समाज के पूरे ढाँचे पर आम मेहनतकश जनता काबिज हो। अपने क्रान्तिकारी संगठनों एच. आर. ए., एच. एस. आर. ए. और नौजवान भारत सभा के घोषणापत्रों में, अदालतों में दिये गये बयानों में, लेखों और जेलों से भेजे गये सन्देशों में भगतसिंह और उनके साथियों ने बार-बार इस बात को साफ़ किया था कि क्रान्तिकारी 10 फीसदी अमीरजादों के लिए नहीं बल्कि 90 फीसदी आम मेहनतकश जनता के लिए सच्ची आज़ादी और जनतन्त्र हासिल करना चाहते हैं। शहीदों की कुर्बानियों और आम जनता के संघर्षों की बदौलत देश आज़ाद तो हुआ लेकिन जाते-जाते अंग्रेज शासन-सत्ता समझौते के द्वारा देशी पूँजीपतियों को सोंप गये। आज़ादी समाज के ऊपरी तबके की तिजोरियों में बन्द होकर रह गयी और व्यापक जनता के हिस्से में बेरोज़गारी, भुखमरी, ग़रीबी, कुपोषण, महँगाई और सबसे बढ़कर जात-धर्म के नाम पर आपसी बँटवारा जैसी चीज़ें ही आयीं। भगतसिंह और उनके साथियों के समतामूलक समाज बनाने के सपने अधूरे रह गये। हमारे देश में आज़ादी के बाद 69 वर्षाें का सफरनामा हमारे सामने पन्ना-दर-पन्ना खुला पड़ा है। देश के किसानों, मज़दूरों, कर्मचारियों समेत आम जनता की सारी उम्मीदें और सारे सपने आज राख हो चुके हैं। 69 वर्ष की आज़ादी का सफरनामा – जनता को क्या मिला? 1947 के बाद से 69 वर्षों की सफरनामा गोरे अंग्रेजों की जगह आये काले अंग्रेजों के शासन में नयी गुलामी के मजबूत होनेे का इतिहास बनकर रह गया है। देश में अरबपतियों-खरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है और ऊपर की दस प्रतिशत अमीर आबादी के लिए ऐशो-आराम का हर सामान आज देश में उपलब्ध है। इसे ही ‘‘विकास’’ का नाम दिया जा रहा है। लेकिन इस तस्वीर का दूसरा अँधेरा पहूल यह है कि दस फीसदी लोगों की यह समृद्धि नब्बे फीसदी लोगों को नर्क के अँधेरे में धकेलकर हासिल की गयी है। 10 प्रतिशत अमीर लोगों का देश की 76.30 प्रतिशत सम्पत्ति पर कब्जा है। देश की ऊपर की तीन प्रतिशत और नीचे की 40 प्रतिशत आबादी की आमदनी के बीच का अन्तर आज 60 गुणा हो चुका है। 1947 के बाद देश के शासक वर्ग ने पूँजीवादी विकास का जो रास्ता चुना उसने एक ऐसा समाज बनाया है जो सिर से पाँव तक सड़ रहा है। चारों तरफ़ लूट-खसोट, अन्धी प्रतिस्पर्धा, अपराध, शोषण-दमन-उत्पीड़न, अमानवीयता और भयंकर गैर-बराबरी छायी हुई है। नरेन्द्र मोदी के 10 करोड़ रोज़गार देने और ‘मेक इन इण्डिया’ जैसे जुमलों के बावजूद नंगी सच्चाई यही है कि चपड़ासी के 368 पदों के लिए 23 लाख से भी ज़्यादा नौजवान आवेदन करते हैं जिनमें पी.एच.डी़. और बी. टेक. की डिग्रीधारक भी शमिल होते हैं। यही है उस ‘‘रोज़गारविहीन विकास” का सच जिसका राग विश्व बैंक और आई.एम.एफ. की शह पर पिछले कई वर्ष से तमाम सरकारें अलाप रही हैं। दुनिया की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था पिछले कई वर्षों से घनघोर मन्दी की चपेट में है। मगर इस मन्दी का बोझ कौन उठा रहा है? क्या देश के पूँजीपतियों, अफसरशाहों, नेताओं या उच्च मध्यवर्ग की ऐयाशियों में कोई कमी आयी है? नहीं! बल्कि उनकी दौलत का अश्लील प्रदर्शन पहले से कई गुणा बढ़ा है। मन्दी का बोझ भी आम मेहनतकश जनता ही उठा रही है। बेहिसाब महँगाई, छँटनी, बेरोज़गारी, वास्तविक वेतन और मज़दूरी में गिरावट और मूलभूत सुविधाओं में एक-एक करके होने वाली कटौती ने आम लोगों का जीना भी मुहाल कर दिया है। दूसरी ओर, हमारी पीठ पर टैक्सों का पहाड़ लादकर पूँजीपतियों को हज़ारों करोड़ रुपये के पैकेज़ और कई तरह की छूटें दी जा रही हैं ताकि उनकी कम्पनियों का मुनाफा कम न हो जाये। लोगों की जेब से एक-एक कौड़ी छीन लेने पर आमादा यह सरकार तब सोती रहती है जब विजय माल्या बैंकों के 9,000 करोड़ लेकर चम्पत हो जाता है। पूरे देश के किसानों पर कुल कर्जे़ की रकम के बराबर 72,000 करोड़ रुपये का सरकारी कर्ज़ अकेले मोदी का खास मुँहलगा पूँजीपति अडानी दबाये बैठा है। मोदी सरकार के दो साल में किसके “अच्छे दिन” आये हैं और किसकी पीठ पर लदा मुसीबतों का पहाड़ और बढ़ गया है, इसे अब बताने की ज़रूरत नहीं है। देश के सबसे बड़े धन्नासेठों अम्बानी, अडानी, बिड़ला, टाटा आदि को मोदी सरकार ने करों में भारी छूट दी है। उनके हित में श्रम कानूनों में बदलाब किये जा रहे हैं ताकि मज़दूरों-कर्मचारियों को लूटना और भी आसान हो जाये। काले धन के मामले में मोदी, रामदेव सब चुप्पी आसन लगाकर बैठे हैं। झूठे आंकड़ों से अर्थव्यवस्था की सेहत अच्छी दिखाने की कोशिशें की जा रही हैं। आने वाले दिनों में जनता पर महँगाई और बेरोज़गारी की मार और भी कसूत्त पड़ने वाली है। भाजपा की नीतियों का विरोध करने वालों को देशद्रोही का ठप्पा लगाकर बदनाम करना और पुलिस तथा संघी गुण्डों के दम पर कुचल डालने के प्रयास किये जा रहे हैं। जाति-धर्म, नकली देशप्रेम और फर्जी मुकदमों आदि को उभारकर पूँजीवादी लूट, पुलिसिया दमन, बेदखली, बेरोज़गारी, महँगाई आदि नब्बे फीसदी लोगों की जिन्दगी के बुनियादी मुद्दों पर और सरकार की वायदा-खि़लाफ़ियों पर परदा डाल दिया गया है। जिस आम अवाम को मिलकर लूट और शोषण के खि़लाफ़ लड़ना है, वे आपस में ही एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो रहे हैं। हमारे मुल्क़ को इस अँधेरी सुरंग से बाहर निकालना ही होगा। भगतसिंह ने दी आवाज! बदलो- बदलो देश-समाज!! ज़रा ठन्डे दिमाग से सोचिये कि 1. फूट डालो और राज करो की नीति की ज़रूरत आज किसको है और क्यों? 2. जब चुनाव करीब होते हैं, तभी क्यों लव-जिहाद, गाय, मन्दिर-मस्जिद आदि के नाम पर साम्प्रदायिक दंगे भड़काये जाते हैं? 3. क्या यह सच नहीं है कि इन दंगों में धर्मों के ठेकेदारों पर कोई आँच नहीं आती है, जे़ड श्रेणी की सुरक्षा में घूमने वाले नेताओं को कोई चोट नहीं पहुँचती है, हमेशा केवल आम ग़रीब लोग ही मरते हैं, उन्हीं के घर जलते हैं? साम्प्रदायिकता के ज़हर को दिमाग से हटाकर सोचा जाय तो इन सवालों का जवाब बहुत आसान है। आज देश के छात्रों-नौजवानों, किसानों-मज़दूरों और आम मेहनतकशों को यह समझ लेना चाहिये कि हमें धर्म और जाति के नाम पर बाँटने और हमारी लाशों पर रोटियाँ सेंकने का काम आज हर चुनावी पार्टी कर रही है!
हमें इनका जवाब अपनी फ़ौलादी एकजुटता से देना होगा। परिवर्तन चाहने वाले छात्रों-युवाओं को नये सिरे से अपने क्रान्तिकारी संगठन और जुझारू संघर्ष संगठित करने होंगे और उन्हें मेहनतकशों के संघर्षों से जोड़ना होगा। उन्हें शहीदे आज़म भगतसिंह के सन्देश को याद करते हुए क्रान्ति का सन्देश कल-कारखानों और खेतों-खलिहानों तक लेकर जाना होगा। स्त्रियों की आधी आबादी की जागृति और लामबन्दी के बिना कोई भी सामाजिक परिवर्तन सम्भव नहीं। मेहनतकशों, छात्रों-युवाओं, बुद्धिजीवियों सभी मोर्चों पर स्त्रियों की भागीदारी बढ़ाना सफलता की बुनियादी शर्त है। हमें हर तरह के जातीय-धार्मिक-लैंगिक उत्पीड़न और दमन के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा। इस संघर्ष को सामाजिक बदलाव की लड़ाई का एक ज़रूरी हिस्सा बनाना होगा। हमें वर्तमान लुटेरे ढाँचे को ध्वस्त करके क्रान्तिकारी शहीदों के सपनों का भारत बनाने के लिए उठ खड़ा होना होगा। हम जानते हैं कि यह रास्ता लम्बा होगा, कठिन होगा और प्रयोगों से और बढ़ावों-उतारों से भरा होगा पर यही एकमात्र विकल्प है। यही जन-मुक्ति-मार्ग है। यही इतिहास का रास्ता है। और हर लम्बे रास्ते की शुरुआत एक छोटे से क़दम से ही होती है। दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा देश भर में जनता की एकता कायम करने के मकसद से ज़िन्दगी से जुड़े मुद्दों को उठा रहे हैं। किसी भी समाज को बदलने में युवाओं की अग्रणी भूमिका होती है और किसी भी व्यापक सामाजिक बदलाव के लिए सबसे पहले विचारों में क्रान्ति लाने की ज़रूरत होती है। इसीलिए हम पुस्तकालयों, पत्र-पत्रिकाओं, पर्चों, नुक्कड़ नाटकों, गीतों और विभिन्न सांस्कृतिक माध्यमों से क्रान्तिकारी विचारों को लोगों के बीच ले जाने में लगे हुए हैं। इस कारवाँ को आगे बढ़ाने के लिए तमाम इंसाफपसन्द नागरिकों व युवाओं के साथ की ज़रूरत है। हम उन सभी का आह्वान करते हैं जो दिल से युवा हैं, जिनके सपने मरे नहीं हैं और जो इस जलते हुए देश में अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर सिर्फ़ अपने लिए जीने को तैयार नहीं हैं। आइये, अपने शहीदों के सच्चे वारिस बनिये, बदलाव की इस मुहिम का हिस्सा बनिये और हमारे हमसफ़र बनिये।
-इंक़लाबी अभिवादन के साथ :
जाति-धर्म के झगड़े छोड़ो! सही लड़ाई से नाता जोड़ो!!
-दिशा छात्र संगठन -नौजवान भारत सभा