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दिशा का रास्ता – भगत सिंह का रास्ता!!

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अपराधों पर चुप्पी तोड़ो! कब तक सहोगे! तुम चुप रहोगे?

हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेहमुला की आत्महत्या भाजपा नेताओं व विश्वविद्यालय प्रशासन के फ़ासीवादी व निरंकुश दबाव के चलते होने वाली हत्या है!

 

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    Disha Students' Organization/ दिशा छात्र संगठन

    1 week ago

    Disha Students' Organization/ दिशा छात्र संगठन
    1857 के विद्रोह के 168 साल पूरे होने के मौके पर1857 के शहीदों को याद करो! देश की जनता की जुझारू एकता और साम्‍प्रदायिक सद्भाव स्‍थापित करो!साम्‍प्रदायिकता का विरोध करो! युद्धोन्‍माद का विरोध करो!नौजवान दोस्‍तो, आज से 168 साल पहले 10 मई के दिन अंग्रेज़ों की ज़ालिम हुकूमत के ख़‍िलाफ़ देश के मेहनतकश किसानों, सिपाहियों और आम लोगों ने एक ज़बरदस्‍त बग़ावत का ऐलान किया था। मेरठ की छावनी में 10 मई 1857 के दिन एक विद्रोह की शुरुआत हुई, लेकिन यह विद्रोह जल्‍द ही भारत के एक विशाल हिस्‍से में फैल गया। इस विद्रोह में किसानों की भारी आबादी ने हिस्‍सा लिया। किसी अन्‍य नेतृत्‍व के अभाव में विद्रोह का नेतृत्‍व कई जगह अलग-अलग रियासतों के राजाओं, राजकुमारों, सेनापतियों आदि के हाथों में अवश्‍य रहा, लेकिन यह विद्रोह पुराने सामन्‍ती भारत को वापस लाने के लिए नहीं किया गया था। वास्‍तव में, यह एक जनविद्रोह था, जिसमें किसान विद्रोह का चरित्र सबसे प्रमुख था। भारी लगान, करों और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा भारत की जनता के दमन के लिए थोपे गये “सुधारों” के विरुद्ध भारतीय जनता का एक विचारणीय हिस्‍सा उठ खड़ा हुआ था। ब्रिटिश शासकों ने इसे महज़ ‘सैनिक विद्रोह’ का नाम देकर इसके इस जन-चरित्र को छिपाने का काफ़ी प्रयास किया। लेकिन इसके बारे में देश-दुनिया में लेखकों, पत्रकारों, प्रेक्षकों आदि ने जो लिखा उससे साफ़ हो गया कि यह महज़ कोई सैनिक विद्रोह नहीं रह गया था, बल्कि एक जनविद्रोह में तब्‍दील हो चुका था: एक उपनिवेशवाद-विरोधी जनविद्रोह में। जनता का व्‍यापक हिस्‍सा इसके साथ खड़ा था और केवल कुछ इलाकों के सामन्‍ती राजे-रजवाड़े व धनी वर्ग ही ब्रिटिश सत्‍ता के साथ मिलीभगत कर रहे थे और उसका साथ दे रहे थे। इस विद्रोह की सबसे अहम बात क्‍या थी? हम आज भला 168 साल पुरानी इस घटना को क्‍यों याद कर रहे हैं? इसलिए क्‍यों इस विद्रोह में एक ख़ास बात देखने में आयी। यह बात थी देश के हिन्‍दुओं और मुसलमानों की फ़ौलादी एकता। इसके बाद से ही अंग्रेज़ों ने यह सबक लिया कि अगर देश के मेहनतकश हिन्‍दू और मुसलमान साथ होकर लड़ेंगे, तो उनकी हुकूमत के बस बचे-खुचे दिन ही बाक़ी होंगे। नतीजतन, ब्रिटिश शासन ने स्‍वयं ऐसे धार्मिक कट्टरपंथी संगठनों को प्रश्रय और बढ़ावा देने की शुरुआत की जो ग़ुलामी और शोषण के विरुद्ध भारतीय जनता के संघर्ष को हिन्‍दू-मुसलमान के नाम पर तोड़ दें। लेकिन 1857 विद्रोह की विरासत को अंग्रेज़ पूरी तरह कुचल नहीं सके। इसी से सीखते हुए शहीदे-आज़म भगतसिंह और उनके साथियों ने हमेशा क्रान्तिकारी सेक्‍युलरवाद के विचारों की हिमायत की। भगतसिंह ने 1928 में सीधे देश की जनता से कहा, “1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्‍यक्ति का व्‍यक्तिगत मसला है, इसमें दूसरे की कोई दख़ल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्‍योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता...यदि धर्म को अलग कर दिया जाय तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं।” (शहीदे-आज़म भगतसिंह, 1928, ‘साम्‍प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’) 1857 में देश की जनता ने यह कर दिखाया था। आज इसका अनुसरण करने की सबसे ज्‍़यादा ज़रूरत है। आज के हुक्‍मरान कम-से-कम इस मामले में बिल्‍कुल बर्तानवी शासन की तरह ही काम कर रहे हैं: देश की जनता देश की असली समस्‍याओं पर एक न हो सके, इसलिए उन्‍हें धर्म के नाम पर, हिन्‍दू-मुसलमान के नाम पर लड़वाया जा रहा है। इतिहासकार प्रो. ज्ञानेन्‍द्र पाण्‍डेय के शोध के इस नतीजे को कमोबेश मानना ही पड़ेगा कि देश में साम्प्रदायिकता के विष को घोलने का काम अंग्रेज़ी शासन ने ही किया था (ज्ञानेन्‍द्र पाण्‍डेय, 2012, ‘दि कंस्‍ट्रक्‍शन ऑफ़ कम्‍युनलिज्‍़म इन कलोनियल नॉर्थ इण्डिया’)। यही कारण है कि उसने स्‍वतन्‍त्रता सेनानियों और शहीदे-आज़म भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारी मुक्तियोद्धाओं का दमन तो किया, मगर कभी भी हिन्‍दू महासभा, मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों, आर.एस.एस., आदि के किसी व्‍यक्ति को हाथ तक नहीं लगाया। लगाते भी क्‍यों? इनका आज़ादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं था। उल्‍टे हिन्‍दू महासभा और संघ के लोग तो अंग्रेज़ों से क्रान्तिकारियों की मुखबिरी कर रहे थे और माफ़ीनामे लिख रहे थे, जिसके ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं। सावरकर ने 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्‍दोलन की शुरुआत में लिखा, “हिन्‍दू महासभा मानती है कि समस्‍त व्‍यावहारिक राजनीति का नेतृत्‍वकारी सिद्धान्‍त है ब्रिटिश सत्‍ता के साथ सक्रिय सहकार की नीति।” (विनायक दामोदर सावरकर, समग्र सावरकर वांगमय, हिन्‍दू राष्‍ट्र दर्शन, खण्‍ड-6, महाराष्‍ट्र प्रान्तिक हिन्‍दू सभा, पूना, 1963, पेज 474) ज्ञात हो कि 1942 में हिन्‍दू महासभा और मुस्लिम लीग प. बंगाल में प्रान्‍तीय गठबन्‍धन सरकार चला रहे थे और इन दोनों संगठनों ने धर्म के आधार पर देश के विभाजन के ब्रिटिश षड्यन्‍त्र का समर्थन किया था। इस गठजोड़ की अगुवाई करने वाले एक अन्‍य साम्‍प्रदायिक फ़ासीवादी नेता श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी ने उसी समय लिखा: “सवाल यह है कि इस (भारत छोड़ो) आन्‍दोलन से कैसे लड़ा जाय?...भारतीय लोगों को ब्रिटिश पर भरोसा है...कि वे प्रान्‍त की रक्षा और स्‍वतन्‍त्रता को क़ायम रखेंगे।” (श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी, ‘लीव्‍स फ्रॉम ए डायरी’)। इसी प्रकार संघ के गुरू गोलवलकर ने कहा था, “हिन्‍दुओं, अपनी ऊर्जा ब्रिटिश से लड़ने में बेकार मत करो, उसे हमारे आन्‍तरिक शत्रुओं यानी मुसलमानों, ईसाइयों और कम्‍युनिस्‍टों से लड़ने के लिए बचाकर रखो।” (जेयर्ड मॉर्गन मैककिनी द्वारा उद्धृत, ‘होमोजीनाइज़‍िंग नेशनलिस्‍ट्स, बडिंग फाशिस्‍ट्स, ट्रक्‍युलेण्‍ट एक्‍सेप्‍शनलिस्‍ट्स’, इण्‍टरनेशनल पॉलिटिक्‍स, न. 59 (2))त्रासद विडम्‍बना की बात है कि इन्‍हीं साम्‍प्रदायिक फ़ासीवादियों के राजनीतिक वंशज जो आज सत्‍ता में मौजूद हैं, वे लोगों को “राष्‍ट्रवाद” और देशभक्ति के प्रमाणपत्र बाँटने में लगे हैं! जो उनके दमन और उत्‍पीड़न से विद्रोह करता है, वह उनके अनुसार देश से द्रोह करता है! यानी, उनका कहना है कि वे ही देश हैं! दुनिया भर में आततायी शासकों ने अक्‍सर यह तरक़ीब अपनायी है कि सरकार और देश का भेद ही समाप्‍त कर दिया जाय। 1857 की विरासत से भला इनका क्‍या रिश्‍ता हो सकता है? ऐसे लोग ‘देश’ जैसे शब्‍द अपनी ज़ुबान पर भी कैसे लाते हैं जो देश को अंग्रेज़ों की साम्‍प्रदायिक नीति के पदचिह्नों पर चलते हुए आज भी धर्म के नाम पर बाँट रहे हैं? देश कोई कागज़ पर बना नक्‍़शा नहीं होता, बल्कि उसमें रहने वाले मेहनतकश लोगों से बनता है। आज जब सरकार उन्‍हीं लोगों को शिक्षा, नौकरी, आवास, स्‍वास्‍थ्‍य का अधिकार नहीं दे पा रही है, तो उन्‍हें धर्म के नाम पर लड़वा रही है और जो उसके विरुद्ध आवाज़ उठाता है, उसे “देश का दुश्‍मन” बता देती है। देश और सरकार के बीच का अन्‍तर ही ख़त्‍म किया जा रहा है। सरकार के वाजिब विरोध को “देश का विरोध” घोषित किया जा रहा है। सरकार की लापरवाही की वजह से ही आतंकी हमले में दुखद रूप से मारे गये लोगों के नाम पर आज युद्धोन्‍माद भड़काया जा रहा है, समूचा सरकारी प्रचार तन्‍त्र और मीडिया इसमें लगा हुआ है। आतंकवाद भी हवा में नहीं पैदा होता। यह मौजूदा मुनाफ़ा-केन्द्रित व्‍यवस्‍था की ही पैदावार होता है। जहाँ आतंकी हमले की जाँच करवायी जानी चाहिए थी, सुरक्षा चूक की जाँच करवायी जानी चाहिए थी और ज़‍िम्‍मेदार नेताओं-नौकरशाहों को सज़ा दी जानी चाहिए थी, वहाँ पूरे देश को ही युद्ध में झोंकने की कोशिशें की जा रही हैं। इससे किसी मसले का समाधान नहीं होने वाला। ज़रा सोचिये कि इससे किसे फ़ायदा होगा? किसका नुक़सान होगा? दोनों देशों की आम मेहनतकश जनता का जिनकी कोई आपसी दुश्‍मनी नहीं है, नुक़सान होगा, उनकी मौतें होंगी और हो रही हैं, उन्‍हीं के बेटे-बेटियों की मौतें होंगी जो सिपाही हैं, और दोनों देशों के शासक वर्ग को राजनीतिक फ़ायदा होगा, विदेशी हथियार कम्‍पनियों को फ़ायदा होगा, युद्धोन्‍माद फैला रहे बिके हुए मीडिया को फ़ायदा होगा। इसी प्रकार, युद्धोन्‍माद का इस्‍तेमाल हेमन्‍त बिस्‍व सरमा जैसे भाजपा नेता देश के भीतर साम्‍प्रदायिक उन्‍माद फैलाने के लिए कर रहे हैं। हमें उनसे कहना चाहिए कि जो-जो शासक वर्गों के युद्ध का समर्थन कर रहा है, वह अपने-अपने बेटे-बेटियों को इस बेमतलब के युद्ध में लड़ने को भेज दे। हम छात्रों-युवाओं को न तो साम्‍प्रदायिक उन्‍माद के जाल में फँसना चाहिए और न ही युद्धोन्‍माद में। हमें अपनी वर्गीय एकजुटता बनाकर रखनी चाहिए। 10 मई उसके लिए एक सही अवसर है। 1857 की बग़ावत ने हमें सिखाया था कि जनता को धर्म के नाम पर अपनी एकजुटता किसी भी हाल में नहीं टूटने देनी चाहिए। हमेशा सत्‍ता में बैठे लोग यही चाहते हैं। आज भी सत्‍ता में बैठे लोग ‘बाँटो और राज करो’ की नीति पर अमल कर हमें टुकड़े-टुकड़े में बाँट देना चाहते हैं, ताकि हम अपनी शिक्षा, रोज़गार, जनवाद और न्‍याय के मसले पर एकजुट ही न हो सकें। 1857 के शहीदों को याद करते हुए हमें अपनी जुझारू जनएकजुटता को बनाकर रखना चाहिए, हमें देश की जनता के शिक्षा, रोज़गार, चिकित्‍सा, आवास और सामाजिक सुरक्षा के अधिकार पर एकजुट होकर संघर्ष करना चाहिए, धर्म को पूरी तरह से निजी मसला घोषित कर देना चाहिए और जो भी पार्टी या दल धर्म को राजनीति के साथ मिलाये उसे अपना दुश्‍मन मानना चाहिए। यह बेहद तार्किक और सीधी-सी बात है और अगर हम इतनी-सी बात नहीं समझते तो हमारा कोई भविष्‍य नहीं, हमारा कोई भला नहीं कर सकता। क्‍या शहीदे-आज़म भगतसिंह से बड़ा कोई देशप्रेमी हो सकता है? उन्‍होंने इस मसले पर क्‍या कहा था, उनकी बात से ही हम बात समाप्‍त कर सकते हैं: “भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है… ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नज़र आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नज़रों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं...यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली...दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं (आज यह बात पूरे मीडिया पर लागू होती है-टिप्‍पणी)। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं… इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’… बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है। दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी ख़राब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है...इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए...लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकण्‍डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुक़सान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी ज़ंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी...भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं। उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नज़र से - हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है। भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं।” (शहीदे-आज़म भगतसिंह, 1928, ‘साम्‍प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’) शहीदे-आज़म भगतसिंह के ये शब्‍द आज हमारे मार्गदर्शक होने चाहिए। इन विचारों को समझना होगा। आज के समय में इन्‍हें विकसित करना होगा। भगतसिंह फाँसी से पहले एक अधूरी पढ़ी किताब का पन्‍ना मोड़कर अपनी जेल कोठरी से निकले थे। आज देश के क्रान्तिकारी, जनपक्षधर, सच्‍चे देशप्रेमी नौजवानों को उसी पन्‍ने से आगे पढ़ना है, ऐसे नौजवान जो जानते हैं कि देश का मतलब कोई नक्‍़शा या प्रतिमा या तस्‍वीर नहीं होता, बल्कि देश में रहने वाले मज़दूर, किसान, मेहनतकश लोग होते हैं। सवाल यह है कि हम, आप और सभी तार्किक, वैज्ञानिक, विवेकवान, न्‍यायप्रिय और संवेदनशील युवा आज के साम्‍प्रदायिक उन्‍माद और युद्धोन्‍माद के समय में दासवत इस लहर में बह जायेंगे, या फिर अपने विवेक और न्‍यायबोध का इस्‍तेमाल करते हुए हुक्‍मरानों के षड्यन्‍त्र को समझेंगे और अपने असल प्रश्‍नों, मुद्दों और समस्‍याओं पर एकजुट होंगे? दोस्‍तो, इस सवाल का जवाब आपको और हमें तय करना ही होगा। शहीदे-आज़म भगतसिंह और उनके यशस्‍वी क्रान्तिकारी साथी इतिहास के नेपथ्‍य से उम्‍मीद भरी निगाहों के साथ देश के बहादुर और न्‍यायप्रिय युवाओं की ओर देख रहे हैं। क्‍या होगा हमारा जवाब?क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,दिशा छात्र संगठन ... 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    Disha Students' Organization/ दिशा छात्र संगठन

    1 week ago

    Disha Students' Organization/ दिशा छात्र संगठन
    Release Rejaz Sydeek and Hilal Mir Immediately!Stop the Witch-Hunt of Political Activists!Journalism is Not a Crime!Disha Students' Organization strongly condemns the arrests of student activist and independent journalist Rejaz Sydeek, and journalist Hilal Mir, for criticising 'Operation Sindoor' and the Indian state's warmongering.On 7th May 2025, the Nagpur police, in collaboration with intelligence agencies, arrested 26-year-old independent journalist and student activist Rejaz M. Sheeba Sydeek. Rejaz is affiliated with the Kerala-based Democratic Students' Association and is a vocal critic of the government's anti-people policies, state-sponsored violence, caste discrimination, communalism, human rights violations, among other issues.Similarly, on 6th May 2025, Hilal Mir, a Kashmir-based journalist, was detained by Counter Intelligence Kashmir for sharing images of demolished homes of alleged militants following the Pahalgam terror attacks. He was branded as a "radical social media user" accused of disseminating “anti-national” content.This is not the first time either Hilal or Rejaz has faced state repression. In 2021, Hilal’s home was searched by Jammu & Kashmir Police during an investigation related to the blog ‘Kashmir Fight’. In 2023, Rejaz was booked while covering the Kalamassery blast case. Most recently, on 29th April 2025, a case was registered against him and other activists for organizing a pro-Kashmir demonstration in Kochi, Kerala. His current arrest appears to be linked to his public condemnation of ‘Operation Sindoor’ in Pakistan-occupied Kashmir and the ongoing ‘Operation Kaagar’ in Bastar, Chhattisgarh.Rejaz had been visiting Nagpur following his participation in a press conference in Delhi organized by the 'Campaign Against State Repression' forum, which addressed the criminalization of journalism. Rejaz and fellow activist Isha Kumari were detained at the Lakadganj Police Station in Nagpur. While the charges against Isha remain unclear, it has been confirmed that Rejaz has been booked under several provisions of the Bhartiya Nyaya Suraksha Sanhita, including: Section 149 (unlawful assembly with intent to wage war against the Government of India), 192 (provocation with intent to cause a riot), 351(1)(b) (criminal intimidation), and 353(2) (statements inciting public mischief), among others.These arrests highlight the Indian state's ongoing attempt to silence voices demanding accountability for its failure to prevent the Pahalgam terror attacks. Individuals criticizing the government's actions in Pakistan-occupied Kashmir or speaking out against warmongering are being systematically targeted with criminal charges.This crackdown is part of a larger pattern. From slapping sedition charges on social media influencers to banning the news portal 'The Wire' and suspending X accounts such as 'Free Press Kashmir', 'The Kashmiriyat', and 'Maktoob Media', the Indian state is waging an assault on press freedom and democratic dissent.While pro-people journalists are being harassed, the corporate media (popularly known as Godi Media) and the BJP IT Cell are being given a free hand to polarize society on communal and nationalist lines. The repeated vilification of Kashmiri and Muslim communities as “terrorists” and the amplification of jingoistic slogans like “Final Solution” and “Surgical Strikes” in mainstream media are deliberate attempts to manufacture consent for war.In its ten-year rule, the BJP government has failed to deliver on basic promises of employment, education, healthcare, and housing. Instead, it has overseen the large-scale privatization of public resources, rising unemployment, inflation, and growing deprivation of quality education and healthcare among the working masses. In the face of increasing public discontent, the government is now fueling border tensions to divert attention from these pressing domestic issues.Disha Students' Organization stands in solidarity with Rejaz Sydeek, Hilal Mir, and all those being criminalized for speaking the truth. We demand their immediate and unconditional release, and we call upon all democratic and progressive individuals and organizations to unite against this wave of state repression.This systematic crackdown on dissent and journalism is a blatant assault on democratic rights. It is imperative that we expose the anti-people character of this war and organise students, youth, and working people in a collective struggle against our real enemies — the ruling elite and the capitalist system built on exploitation of the common masses.The people of India do not want war — they demand employment, education, healthcare, and housing for all.• Disha Students' Organization#PressFreedom #journalist #students #TheWire #Kashmir #pahalgam #OperationSindoor #war #education #employment #healthcare ... See MoreSee Less

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    Disha Students' Organization/ दिशा छात्र संगठन

    2 weeks ago

    Disha Students' Organization/ दिशा छात्र संगठन
    पहलगाम पर हमले के ख़िलाफ़ "जवाबी कार्रवाई" के नाम पर देश को युद्धोन्माद में धकेलना बन्द करो!अन्धराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद के बरक्स अपने असल मुद्दों पर एकजुट हो!!जंग तो ख़ुद ही एक मसला है जंग क्या मसलों का हल देगी, आग और ख़ून आज बख़्शेगी भूख और एहतियाज कल देगी!साहिर लुधियानवी के ये कथन आज देश के माहौल के साथ सटीक बैठते हैं। पहलगाम पर हुए आतंकी हमले के बाद फ़ासीवादी मोदी सरकार ने 'ऑपरेशन सिन्दूर' के नाम से पाकिस्तान पर जवाबी कार्रवाई की बात कर रही है। दोनों ही देश यह दावा कर रहे हैं कि उन्होंने अपने "शत्रु" मुल्क के जहाजों और लोगों को मार गिराया है। इतना तो तय है कि इस लड़ाई में कई जाने गयी हैं, जो निश्चित ही आम घरों से आने वाले बेटे-बेटियों की हैं। इस दौरान देश के कई विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के भीतर मॉक ड्रिल किये जा रहे हैं, और छात्रों को इस चीज़ की ट्रेंनिग दी जा रही है कि युद्ध जैसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए। पहलगाम हमले के बाद 'ऑपरेशन सिन्दूर' के ज़रिए मोदी सरकार एक बार फिर कुछ ज़रूरी सवालों को जनता की आँखों से ओझल करने का काम कर रही है। सबसे पहला सवाल तो यही है कि कश्मीर में इतनी अधिक सेना की तैनाती के बावजूद सुरक्षा में इतनी बड़ी चूक कैसे हो सकती है। यह मोदी सरकार के तो उन दावों की धज्जियाँ उड़ा देता है जिसमें वह धारा 370 के हटने के बाद कश्मीर में "सामान्य स्थिति" और आतंकवाद की कमर तोड़ने की खोखली बातें करती है। पुलवामा हमले के बाद भी ठीक यही सवाल उठा था, लेकिन उसके बाद भी अन्धराष्ट्रवाद की आग में इस सवाल को ओझल कर दिया गया कि पुलवामा में सुरक्षा की चूक के पीछे कौन ज़िम्मेदार है। सत्यपाल मलिक द्वारा उठाये गये सवालों को भी इस सरकार द्वारा दबा दिया गया। इस दफ़ा एक बार फिर सुरक्षा के तमाम सवालों को यह सरकार दरकिनार कर अन्धराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद की आग में जनता को झुलसाने का काम कर रही है। दूसरा सवाल यह उठाने की ज़रूरत है कि ऐसा क्यों होता है कि जब-जब चुनाव का माहौल होता है और जनता में बुनियादी मसलों को लेकर असन्तोष होता है, तभी अचानक सीमा पर तनाव बढ़ जाता है। हम सभी जानते हैं कि मोदी सरकार अपने तमाम हवाई वायदों पर फिसड्डी साबित हो चुकी है। लगातार शिक्षा का बाज़ारीकरण किया जा रहा है और रोज़गार के नाम पर छात्रों को "आत्मनिर्भर" बनने और पकौड़े तलने की नसीहतें दी जा रही हैं। देशभर में केन्द्रीय और राजकीय विश्वविद्यालयों की फ़ीसे बढ़ायी जा रही हैं, कैम्पस के भीतर एक-एक कर जनवादी स्पेस को ख़त्म किया जा रहा है, देशभर में विश्वविद्यालय प्रशासन के द्वारा अपने हक़ों की आवाज़ उठाने वाले छात्रों को निलम्बित और निष्कासित कर दिया जा रहा है, कैम्पस के भीतर पुलिस की मौजूदगी को सामान्य बताया जा रहा है। इतना ही नहीं विश्वविद्यालयों के भीतर संघ के लोगों को घुसाया जा रहा है, और स्कूल से लेकर कॉलेज तक के पाठ्यक्रमों में बदलाव कर इतिहास, विज्ञान और तार्किकता पर हमले किये जा रहे हैं। इस बात को कौन भूल सकता है कि सेना के लिए छाती पीट-पीटकर वोट माँगने वाली मोदी सरकार ने अग्निवीर के तहत सेना में भी ठेके पर भर्ती की शुरुआत कर दी। चुनाव से पहले कांग्रेस द्वारा देश बेचने के नाम पर वोट माँगने वाली इसी सरकार में रेलवे से लेकर तमाम सरकारी उपक्रमों को बेचने में पुरानी सारी सरकारों को पीछे छोड़ दिया। इन तमाम मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने के लिए यह सरकार जनता को धार्मिक उन्माद में धकेल रही है। इस हमले के बाद आरएसएस की गुण्डा वाहिनियों ने देश के अलग-अलग इलाक़ों में रहने वाले कश्मीरी छात्रों पर हमले किये, और एक बड़ी मुस्लिम आबादी के बीच डर का माहौल बनाया। असल में मोदी सरकार और संघ परिवार इस मसले को धार्मिक रंग देकर 'अन्य' की छवि को और मज़बूत करने का काम कर रही है, जो कि फ़ासीवाद की सामान्य विशेषताओं में से एक होता है, मसलन एक ऐसा नक़ली शत्रु खड़ा किया जाये (जो आमतौर पर विचारणीय अल्पसंख्यक होता है) जिसके ऊपर जनता की तमाम समस्याओं का ठीकरा फोड़ा जा सके। यह अलग बात है कि इस बार फ़ासीवादियों का यह प्रचार आम जनता के बीच इतना प्रचलित नहीं हो सका, जिसके बाद युद्धोन्माद के नये हथकण्डे अपनाकर मोदी-शाह जनता के बीच नफ़रत का ज़हर घोल रहे हैं। युद्धोन्माद के इस बहाव में न बहकर आज छात्रों-युवाओं को यह समझने की ज़रूरत है कि क्या शासक वर्गों के बीच का आपसी युद्ध वाक़ई कोई विकल्प देता है! अगर ऐसा होता तो दुनिया में चल रहे तमाम युद्ध अपने आप में एक सही नतीजे की ओर ले जाते। लेकिन हम सब जानते हैं कि इन युद्धों ने हमेशा से ही अगर किसी को फ़ायदा पहुँचाया भी है तो वह है शासक वर्ग, और इसका नुक़सान आम मेहनतकश आबादी ने ही उठाया है। युद्ध के दौरान अतिरिक्त आर्थिक ख़र्च के बोझ उठाने से लेकर सीमा पर मारे जाने वाले जवान तक आम घरों के ही लोग होते हैं। हाँ, इससे मोदी सरकार अपने वोटों की संख्या में ज़रूर इज़ाफ़ा कर लेगी, और अवाम को धर्म और अन्धराष्ट्रवाद की आग में झोंक देगी। आरएसएस और भाजपा के इस षड्यंत्र को बेनक़ाब करने के बजाय आज का पूरा तथाकथित प्रगतिशील तबका घुटनों पर आ गया है। सीपीई, सीपीएम जैसी गद्दार पार्टियों ने भी संघ द्वारा इस युद्धोन्माद भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इन बेशर्म पार्टियों ने आरएसएस और भाजपा के फ़ासीवादी एजेण्डे को अपना पूरा समर्थन ज़ाहिर किया है। साथ ही इन्हीं पार्टियों के पुछल्ले छात्र संगठनों ने या तो इस मसले पर चुप्पी साधकर फ़ासिस्टों को मौन समर्थन दिया है या फिर सीधे उनकी प्रचार मशीन के रूप में काम कर रहे हैं। एक बार फिर इन पार्टियों ने अपनी ऐतिहासिक गद्दारी का सबूत आम जनता के सामने रख दिया है, और यह साबित कर दिया है कि फ़ासीवादी उभार में इन गद्दार पार्टियों की अहम भूमिका होती है। साथ ही 'ऑपरेशन सिन्दूर' की 'प्रेस ब्रीफिंग' के दौरान दो महिला अधिकारियों में एक मुस्लिम महिला को खड़ाकर फ़ासीवादियों ने यह दिखा दिया है कि पहचान की राजनीति फ़ासीवादियों से बेहतर और कोई नहीं कर सकता, और पहचान की राजनीति की अन्तिम परिणति अन्ततोगत्वा फ़ासीवाद के सामने घुटने टेकने की ही होती है। उदाहरण के लिए इस बार भी फ़ासीवादियों के इस क़दम की पहचान की राजनीति करने वालों के द्वारा सराहना की जा रही है। आज हमें इस मसले पर सही रुख़ इस रूप में अपनाना चाहिए कि हमें युद्ध और युद्धोन्माद के ख़िलाफ़ अपना पक्ष ज़ाहिर करना चाहिए। दिशा छात्र संगठन की यह माँग है कि तत्काल भारत और पाकिस्तान सीमा पर शान्ति बहाल करे। साथ ही पहलगाम पर हुए आतंकी हमले की निष्पक्ष जाँच करे।हम देश की तमाम छात्र-युवा आबादी से यह अपील करते हैं कि फ़ासिस्टों द्वारा शुरू किये गये युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवादी लहर में कतई न बहें। वे यही चाहते हैं कि हम अपने असल मसलों को भूलकर अपना ध्यान पाकिस्तान और देश के मुस्लिमों पर केन्द्रित करें, बल्कि इसके विपरीत हमें अपने असल मुद्दों पर एकजुट होकर आरएसएस और भाजपा के इस फ़ासीवादी एजेण्डे से न सिर्फ़ बचना होगा, बल्कि इसे बेनक़ाब भी करना होगा। ... 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    Disha Students' Organization/ दिशा छात्र संगठन

    2 weeks ago

    Disha Students' Organization/ दिशा छात्र संगठन
    Disha Students' Organization remembers the great pro-people and scientific philosopher and historian Debi Prasad Chattopadhyaya on his 32nd Death Anniversary. DP Chattopadhyaya's pathbreaking works on ancient Indian philosophy is a treasure trove for any student of Indian philosophy. Chattopadhyay shows the struggle between the idealist and the materialist schools of thoughts as the motive force behind the development of Indian philosophy. He situates this struggle between the opposing schools of thoughts and philosophical traditions within the broader framework of class struggle of their particular periods. It won't be an exaggeration to credit Chattopadhyaya, along with the likes of K. Damodaran and few other researchers, for salvaging the glorious materialist traditions in ancient Indian philosophy from the depths of oblivion. Some of his most important writings on ancient Indian philosophy includes books like 'Lokayata: A Study in Ancient Indian Materialism' (1959), 'What is Living and What is Dead in Indian Philosophy' (1976), 'In Defence of Materialism in Ancient India' (1989) etc. Prof. DP Chattopadhyaya also brilliantly sheds light on the history of scientific and technological development in ancient India, situated it in the framework of class struggle and traced its intricate relationship with the struggles between materialist and idealist philosophical traditions. His attempts at historicising the development of science in ancient India places him alongside some of the great historians of science such as Joseph Needham, JD Bernal, George Thomson etc. 'Science and Society in Ancient India' (1977), 'History of Science and Technology in Ancient India Volume 1, 2 and 3' are a must read for any student of science and history. We must also remember that DP Chattopadhyaya was not an armchair intellectual gleaning through the dusty books of history and philosophy sitting in the high ivory tower of knowledge. Throughout his intellectual career Chattopadhyaya remained a steadfast supporter of people's movements and a vocal advocate for democratic rights, secular values and scientific education. At a time when Indian education system is facing a multipronged attack by the fascists, when progressive and radical trends in Indian philosophy are being erased from every textbook, when myths and superstitions are being peddled as scientific thought, when rationalist thinkers are being shot at broad daylight, it becomes even more important for every sensitive student to not only passively study the works of pro-people and scientific intellectuals like Debi Prasad Chattopadhyaya but also actively propagate their ideas in every possible way. ... See MoreSee Less

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    Disha Students' Organization/ दिशा छात्र संगठन

    3 weeks ago

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    नये संकल्प लें फिर सेनये नारे गढ़े फिर उठो ओ शिल्पियों नवजागरण का सूत्र रचने का समय फिर आ गया है।1 मई यानी अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस मेहनतकशों के संघर्षों को याद करने का दिन है और साथ ही आज के संघर्षों को नए सिरे से संगठित करने के संकल्प का दिन है। आज से 139 साल पहले 1886 में हमारे मेहनतकश पुरखों द्वारा ‘8 घण्टे काम, 8 घण्टे आराम, 8 घण्टे मनोरंजन’ का इन्सानी हक़ का नारा बुलन्द किया गया था। मज़दूरों ने जानवरों की तरह खटने से इन्कार करते हुए पूँजीपतियों और उनकी सरकार के साज़िश और बर्बर दमन का सामना करते हुए जीत हासिल की थी। इसीलिए अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस (एक मई) को दुनिया के मज़दूर अपने पुरखों द्वारा हासिल की गई जीत का जश्न भी मानते हैं और लूट पर टिकी मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए अपने संघर्ष की समीक्षा करते हैं और नए जोश के साथ आगे की लड़ाईयों की योजना बनाते हैं।आज बाज़ार की शक्तियों, पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों और पूँजीवादी व्यवस्था के ‘सेफ्टी वाल्व’ संशोधनवादी नकली वामपन्थी पार्टियों, अस्मितावादियों और तमाम एनजीओपन्थियों द्वारा इसके क्रान्तिकारी विरासत पर धूल और राख़ डालने की कुत्सित कोशिश की जा रही है। इनके द्वारा 1 मई के क्रान्तिकारी चरित्र को बदलकर इसे रस्मी अनुष्ठानों और अर्थवाद की अन्धी गली में कैद करने की कोशिश की जा रही है। आज हम अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस एक ऐसे दौर में मना रहे हैं जब देश में फ़ासीवादी शक्तियों द्वारा मेहनतकशों के लम्बे संघर्षों के बाद हासिल अधिकारों को छीन लेने की कोशिशें की जा रही हैं और मेहनतकशों की स्वतन्त्रता, सम्मान और सुरक्षा पर चौतरफा हमलें और भी तेज हो गये हैं। ऐसे दौर में ज़रूरी है कि न केवल अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु पर हो रहे तमाम हमलों का वैचारिक सांस्कृतिक जवाब दिया जाय बल्कि आज हमारे सामने यह जलता हुआ सवाल भी है कि 1 मई के क्रान्तिकारी विरासत की रोशनी में आज के समस्याओं का मूल्यांकन किया जाय और प्रतिरोध के कारग़र औजार भी गढ़े जाय। कई बार हम छात्रों में 1 मई को लेकर एक उपेक्षा का नज़रिया इस रूप में होता है कि यह केवल मेहनतकशों के संघर्ष को याद करने का दिन है। ज़ाहिरा तौर पर ऐसी सोच हमारे भीतर मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था और मीडिया के ज़रिये पैदा की जाती है ताकि हम हर प्रकार के शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ होने वाले संघर्ष से अपने को जोड़कर देखने की क्षमता खो दें और व्यापक मेहनतकश जनता की एकता स्थापित ही ना हो सके। लेकिन एक बात हमें स्पष्ट तौर पर समझ लेनी चाहिए कि दुनिया में जहाँ कहीं भी अन्याय, उत्पीड़न और दमन के ख़िलाफ़ संघर्ष चल रहा है या चला है हर उस जगह चाहे वह दुनिया का कोई भी देश हो, लड़ने वाले लोग हमारे अपने हैं चाहे उनका रंग, धर्म या लिंग कोई भी हो और ठीक इसीलिए इन सभी संघर्षों की क्रान्तिकारी विरासत भी हमारी अपनी विरासत है। अपने क्रान्तिकारी विरासत के प्रति उपेक्षा का रवैया चाहे-अनचाहे हमें पूँजीपति वर्ग या उत्पीड़न करने वाले लोगों के पाले में खड़ा कर देता है। इस प्रकार हमारी क्रान्तिकारी एकता कमज़ोर होती है और हम भी शोषण और उत्पीड़न का शिकार होने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं। इतिहास के पन्नों को पलटें तो हम पाते हैं कि क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन और क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन का हमेशा क़रीबी रिश्ता रहा है। विश्वविद्यालय के चौहदियों से बाहर निकल कर नौजवानों और आम मेहनतकश जनता के संघर्षों से जुड़े बगैर छात्र आन्दोलन भी अपने लक्ष्यों और उद्देश्यों को पूरा नहीं कर सकता। इसलिए आज हम सभी इंसाफ़-पसन्द छात्रों को मई दिवस के गौरवशाली इतिहास को याद करने, उससे सबक लेने और नई सदी में क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन के समस्याओं और चुनौतियों को समझने की ज़रूरत है। ... See MoreSee Less

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