दिशा आपके बीच क्यों?

 

दिशा आपके बीच क्यों?

साथियो! विश्वविद्यालय के नये सत्र में हम आपका तहे-दिल से स्वागत करते हैं। विश्वविद्यालय में दाख़िले के साथ ही हम अपने ज़िन्दगी की एक नयी दहलीज़ पर खड़े होते हैं जहाँ से सैकड़ों रास्ते फूटते हैं। हम सभी कुछ नया, कुछ रचनात्मक करना चाहते हैं। हम सभी के अन्दर कुछ कर गुज़रने, अपनी एक अलग पहचान बनाने और समाज के लिए कुछ करने की उमंग होती है। हमारे सामने तमाम किस्म के करियर बनाने के प्रलोभन मौजूद होते हैं। शिक्षक, शोधकर्ता, सिविल सरवेण्ट, पत्रकार, आदि से लेकर प्रबन्धन में दाखि़ले और विदेश में बस जाने के सपने हमारे ज़ेहन में बचपन से ही भरे जाते हैं। साथ ही, विश्वविद्यालय परिसर सबसे उन्नत और वैज्ञानिक विचारों के जन्म का केन्द्र रहे हैं। जनवाद, भ्रातृत्व, स्वतन्त्रता, समानता, सामाजिक न्याय जैसे तमाम विचारों का जन्म समाज के संघर्षों से प्रेरित होकर विश्वविद्यालय कैम्पसों में ही हुआ। विश्वविद्यालय से ही निकलने वाले इंसाफपसन्द और बहादुर छात्र-छात्राओं ने मज़दूरों, स्त्रियों, दमित राष्ट्रीयताओं, दलितों और तमाम शोषित-उत्पीड़ित लोगों के आन्दोलनों को नेतृत्व दिया और हर-हमेशा रोज़गार, शिक्षा और आजीविका के हक़ के लिए छात्रों-नौजवानों के आन्दोलन खड़े किये।

यही कारण है कि आज फासीवादी मोदी सरकार के निशाने पर सबसे उपर छात्र हैं। एक ओर शिक्षा का लगातार बाज़ारीकरण और निजीकरण किया जा रहा है, छात्रों की स्कॉलरशिप बन्द की जा रही है या रोकी जा रही है, सीटें नहीं बढ़ाई जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर अगर छात्र इसके ख़िलाफ आवाज़ उठाते हैं, तो मोदी सरकार उनका दमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। आज न सिर्फ छात्रों के हक़ों पर हमले किये जा रहे हैं, बल्कि विश्वविद्यालय की पूरी सोच पर हमला किया जा रहा है। विश्वविद्यालय को उन्नत विचारों के जन्म, बहस-मुबाहिसे के केन्द्र और विचार-विमर्श की जगह की बजाय उसे मोदी सरकार और संघ की मानसिक गुलामी करने वाले लोग तैयार करने का बौद्धिक कारखाना बनाया जा रहा है। विश्वविद्यालय से लेकर स्कूल तक के पाठ्यक्रमों में राष्ट्रवाद के नाम पर ये भगवा फासीवादी अपनी साम्प्रदायिक विचारधारा घुसा रहे हैं, जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेना तो दूर, अंग्रेज़ों के लिए मुखबिरी का काम किया और उनके सामने माफीनामे लिखे! इस तरह से समूची उच्चतर शिक्षा की व्यवस्था को मोदी सरकार तबाह-बरबाद कर रही है। इस प्रक्रिया में समाज के दमित तबकों से आने वाले छात्र-छात्राओं को सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन विशेष तौर पर निशाना बना रहे हैं, जैसा कि रोहिथ वेमुला के समूचे मसले में साफ तौर पर नज़र आया। निश्चित तौर पर, आज यह छात्रों के सामने संघर्ष का सबसे प्रमुख मसला है कि हम शिक्षा के बाज़ारीकरण और भगवाकरण की संघी साज़िश को नाकाम करें।

लेकिन दोस्तो, आज विश्वविद्यालय परिसर में आपके सामने जो राजनीतिक परिदृश्य है वह ऐसे छात्र-युवा आन्दोलन के निर्माण की सम्भावनाओं का ध्वंस कर रहे हैं। तमाम भ्रष्ट चुनावी पार्टियों के पिछलग्गू छात्र संगठन धनबल-बाहुबल की अपराधी भ्रष्ट राजनीति की नुमाइश कर रहे हैं। तथाकथित वामपंथी पार्टियों के छात्र विंग भी लाल मिर्च खाकर विरोध-विरोध की रट लगाने वाले तोतों से ज़्यादा कोई भूमिका नहीं निभा पाते। बातें तो वे गर्म-गर्म करते हैं लेकिन उनकी राजनीति और गतिविधि प्रतीकवाद से आगे नहीं जा पाती क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर इन तथाकथित वामपंथी छात्र संगठनों की आका पार्टियाँ भी ज़्यादा से ज़्यादा संसद-विधानसभाओं के सुअरबाड़े में नकली विरोध की नौटंकी ही करती नज़र आती हैं! यह दीगर बात है कि जब ये नामधारी वामपंथी स्वयं किसी राज्य में सरकार बनाते हैं तो ये भी लूट और दमन के वैसे ही कीर्तिमान स्थापित करते हैं जैसे कि कांग्रेस, भाजपा, राजद, जद(एकी) सपा, बसपा आदि जैसी खुली सरमायेदार चुनावी पार्टियाँ करती हैं। नतीजतन, आज विश्वविद्यालय परिसर के भीतर की छात्र राजनीति महज़ एम.एल.ए.-एम.पी. बनने का प्रशिक्षण केन्द्र बनकर रह गयी है। तमाम रंग के चुनावबाज़ मदारी अण्डे-डण्डे-झण्डे-मुस्टण्डे की राजनीति करते नज़र आते हैं। छात्रों की असल समस्याओं के बारे में इन्हें जानकारी तक नहीं है। एक ऐसे राजनीतिक माहौल में हम आपके सामने छात्र राजनीति में एक नये क्रान्तिकारी विकल्प के निर्माण का प्रस्ताव लेकर सामने आये हैं।

शिक्षा है सबका अधिकार! बन्द करो इसका व्यापार!

क्या आपको पता है कि हमारे देश में बारहवीं पास करने वाले मात्र 7 प्रतिशत छात्र ही विश्वविद्यालय में दाख़िला ले पाते हैं? इसलिए नहीं कि वे पढ़ना नहीं चाहते या फिर वे नाक़ाबिल हैं। शिक्षा के बाज़ारीकरण और ग़रीबी के कारण वे नहीं पढ़ पाते। इनमें से एक आबादी बारहवीं के बाद आई.टी.आई.-पॉलीटेक्निक आदि में दाख़िला लेकर कुशल मज़दूरों की भीड़ में शामिल हो जाती है| जो इस तकनीकी शिक्षा का भी ख़र्च नहीं उठा पाते हैं वे अकुशल-अर्द्धकुशल मज़दूरों में शामिल हो जाते है जो इसके बाद भी बचते हैं वे इस देश के 27 करोड़ बेरोज़गारों की फौज में शामिल हो जाते हैं। क्या आपको पता है कि इस देश में पढ़े-लिखे बेरोज़गारों की तादाद 4 करोड़ है? यानी, जो विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त कर भी पाते हैं, उनकी डिग्रियों का आज बाज़ार में कोई मूल्य नहीं है। मास्टर्स करके लोग रेलवे के खलासी के पद के फॉर्म भरते हैं, या वर्षों तक प्रतिस्प्रधि परीक्षाओं की तैयारी करते हुए अवसाद में जीते रहते हैं। आम घरों से आने वाली युवा आबादी हर सम्भव दरवाजे़ को खटखटाने के लिए ज़िन्दगी में बेतहाशा भाग रही है। वे प्रशासनिक सेवाओं, इंजीनियरिंग, मेडिकल से लेकर बैंक क्लर्क और टीचर तक की नौकरी के लिए परीक्षाएँ देते रहते हैं। इस युवा आबादी की असहायता का ही लाभ तमाम निजी कोचिंग संस्थान उठाते हैं, जो कुकुरमुत्ते की तरह हर गली में पनप रहे हैं। सभी जानते हैं कि यह करोड़ों रुपये का उद्योग मुख्यतः और मूलतः एक बहुत बड़ा ‘फ्रॉड’ है। लेकिन आम घरों के बेटे-बेटियाँ बदहवासी में दर-दर भटकने को मजबूर हैं। छात्रों-युवाओं की इस भारी आबादी में से मुट्ठी भर लोग ही अपने सपने पूरे कर पाते हैं| इसलिए नहीं कि बाकी नौजवान नाकाबिल हैं, बल्कि इसलिए कि यह व्यवस्था उनके लिए रोज़गार के अवसर पैदा कर ही नहीं रही है। कुछ अवसादग्रस्त हो जाते हैं, कुछ अपराध का रास्ता पकड़ लेते हैं तो कुछ आत्महत्या भी कर लेते हैं। लेकिन इसके बाद भी करोड़ों नौजवानों की आबादी बचती है जो इस व्यवस्था के प्रति नफरत की आग दिल में लिए जीती है और किसी विकल्प की तलाश करती रहती है। विश्वविद्यालय के आम छात्रों-युवाओं के लिए भी अपनी शिक्षा को जारी रख पाना एक चुनौती होता है। आज पटना विश्वविद्यालय में ही एक विशाल तादाद ऐसे आम छात्रों की है जो किसी तरह से ट्यूशन पढ़ाते हुए, कोई पार्ट-टाइम नौकरी करते हुए, मुश्किल से अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे हैं।इसका कारण यह है कि पिछले 30 वर्षों में विश्वविद्यालय के शुल्कों में करीब 15 गुणा की वृद्धि हो चुकी है, जो भी कोर्स रोज़गार का नाममात्र अवसर प्रदान करते हैं उन्हें स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रमों में तब्दील कर दिया गया है, जिसकी फीस भरने का सपना एक मध्यवर्गीय नौजवान भी मुश्किल से ही देख सकता है। हम छात्रों-नौजवानों की ज़िन्दगी के इस अन्धकार का ज़िम्मेदार कौन है? आज़ाद भारत के 69 वर्षों में हम लगभग सभी प्रमुख चुनावी पार्टियों की सरकारें देख चुके हैं। इन सभी की आर्थिक नीति और शिक्षा नीति में कोई गुणात्मक फर्क नहीं है। सभी ने अपने शासन में शिक्षा का बेतहाशा निजीकरण किया, फीसें बढ़ायीं और सीटें नहीं बढ़ायीं। शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत ख़र्च करने के पुराने वायदे पर किसी भी सरकार ने अमल नहीं किया है। आज शिक्षा पर होने वाला ख़र्च सकल घरेलू उत्पाद का मुश्किल से 1 प्रतिशत है। ऐसा सरकारी ख़जाने के कम होने के कारण नहीं है, बल्कि इसलिए है कि सरकारी ख़ज़ाने के बड़े हिस्से को हर बजट में बड़े-बड़े कारपोरेट घरानों को छूटें, रियायतें, कर माफी, कर्ज़ माफी देने पर ख़र्च कर दिया जाता है। मोदी सरकार ने तो अम्बानियों-अदानियों की चमचागीरी के सारे रिकार्ड तोड़ दिये हैं। लेकिन जब देश के आम ग़रीब और मेहनतकश लोगों के बेटे-बेटियों को शिक्षा, रोज़गार, चिकित्सा, रिहायश आदि जैसे बुनियादी जीवन के अधिकार देने की बात आती है तो सरकार बजट घाटे का रोना रोते हुए हाथ खड़े कर देती है। ज़ाहिर है कि सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, वह वास्तव में कारपोरेट घरानों, मालिकों, ठेकेदारों, दल्लालों के वर्ग की ‘मैनेजिंग कमेटी’ का काम करती है। इन्हीं आर्थिक व शैक्षणिक नीतियों के कारण आज पटना विश्वविद्यालय में भी फीसें बढ़ायी जा रही हैं, सीटें सापेक्षतः घटायी जा रही हैं, वित्तीय-प्रशासनिक-शैक्षणिक अनियमितता का माहौल है, शिक्षकों की भर्ती नहीं की जा रही है और शिक्षा की गुणवत्ता लगातार गिरायी जा रही है।

पटना विश्वविद्यालय की मौजूदा हालत

पटना विश्वविद्यालय आधुनिक काल में भारतीय महाद्वीप का सातवाँ सबसे पुराना और बिहार का सबसे पुराना विश्वविद्यालय है। इसका एक गौरवशाली इतिहास रहा है। लेकिन आज इसकी स्थिति दयनीय है। 1917 में स्थापित इस विश्वविद्यालय में करीब 31 स्नातकोत्तर विभाग, 8 संकाय, 10 सम्बद्ध कॉलेज, और 42 विभाग/संस्थान/केन्द्र हैं। इसके पास करीब 181.58 एकड़ भूमि है, जिसमें से 48.92 एकड़ निर्मित क्षेत्र है और 25.24 एकड़ रिहायशी क्षेत्र है। फिलहाल, पटना विश्वविद्यालय के आँकड़ों के मुताबिक इसमें करीब 19 हज़ार छात्र पढ़ते हैं और शिक्षकों की संख्या फिलहाल करीब 3 सौ है, हालाँकि शिक्षकों के पदों की संख्या 1004 है। यानी कि करीब 7 सौ पद खाली हैं! शिक्षक-छात्र अनुपात फिलहाल 1:60 से भी ज़्यादा है, जो कि रिक्त पदों के भरे जाने पर 1:18 होगी। पटना कॉलेज में संस्कृत, बंगाली और उर्दू विभाग में कोई शिक्षक ही नहीं है। शिक्षक रिटायर होते जा रहे हैं, खाली पदों की संख्या बढ़ती जा रही है,लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन इन पर भर्ती नहीं कर रहा है। अगर कोई नयी भर्ती होती भी है तो वह ठेके और अस्थायी के तौर पर होती हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन ने अपनी वेबसाइट पर पटना विश्वविद्यालय के पुस्तकालय के बारे में बड़ी-बड़ी बातें बघारी हैं, मसलन, इसमें इण्टरनेट की सहज सुविधा उपलब्ध है, इसमें लाखों किताबों और दुर्लभ पाण्डुलिपियों का भण्डार है, वगैरह। लेकिन सच्चाई यह है कि पटना विश्वविद्यालय की लाईब्रेरी की अधिकांश किताबें अब अकादमिक तौर पर पुरानी पड़ चुकी हैं और वे छात्रों के किसी काम नहीं आतीं! पुस्तकालय महज़ एक रीडिंग रूम और रैन बसेरा बनकर रह गया है। यहाँ से पुस्तकें भी बिरले ही इशू होती हैं! रिकॉर्ड के अनुसार इसमें 2.5 लाख किताबें हैं, जबकि एक हालिया सर्वेक्षण से पता चला कि वास्तव में इसमें मात्र डेढ़ लाख किताबें बची हैं। यानी एक लाख किताबें ग़ायब हैं! लाईब्रेरी में पर्याप्त संख्या में कर्मचारी तक नहीं भर्ती किये गये हैं! पटना विश्वविद्यालय का एक प्रेस भी है। लेकिन कैलेण्डरों के अलावा शायद ही कोई सामग्री वहाँ से छपती हो! दूरस्थ शिक्षा की पाठ्य सामग्री भी कहीं बाहर से ही मुद्रित होती है! आलम यह है कि पिछले कई वर्षों से हमारे विश्वविद्यालय ने किसी भी स्नातक व स्नातकोत्तर कोर्स का सिलेबस तक नहीं छापा है! बिना पाठ्यक्रम पता हुए कोई विश्वविद्यालय कैसे पठन-पाठन कर सकता है, यह वास्तव में एक शोध का विषय है! और हमें जो पढ़ाया जा रहा है उसकी प्रासंगिकता क्या है? हमारा सिलेबस कई दशक पुराना है, प्रयोगशालाओं में बाबा आदम के ज़माने के उपकरण रखे हैं जिनमें कुछ ही आज काम लायक हैं| मानविकी के विभागों की कक्षाओं में शायद ही कोई सजीव प्रासंगिक चर्चा या बहस चलती हो। परीक्षा के समय छात्र क्वेशचन-बैंक से प्रश्न गेस करते हैं और परीक्षा दे आते हैं। प्रशासनिक-शैक्षणिक अव्यवस्था-अराजकता के कारण शैक्षणिक संस्कृति ही ऐसी हो तो छात्र व शिक्षक और कर भी क्या सकते हैं? इस तरह की शिक्षा पाकर हम किस लायक बनेंगे? करोड़ों रुपये बिजली बिल बकाया रहने के कारण कई बार विश्वविद्यालय की बिजली आपूर्ति काट दी जाती है। विश्वविद्यालय के कॉलेजों की कक्षाएँ, प्रयोगशाला, गलियारे अंध्कारमय खण्डहर-से प्रतीत होते हैं। ऐसे में, सवाल उठता है कि करोड़ों रुपये का विश्वविद्यालय प्रशासन आख़िर करता क्या है? पटना विश्वविद्यालय में ये प्रशासनिक व शैक्षणिक अनियमितताएँ और अव्यवस्था इसलिए नहीं हैं कि विश्वविद्यालय प्रशासन के पास संसाधनों की कोई कमी है। इसका कारण यह है कि विश्वविद्यालय में कोई वित्तीय और प्रशासनिक पारदर्शिता नहीं है। स्नातक व स्नातकोत्तर के प्रवेश परीक्षा के आवेदन प्रपत्र को बेचकर और छात्रों की फीस से ही हर वर्ष विश्वविद्यालय को लाखों की आमदनी होती है। इसके अलावा, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से भी पटना विश्वविद्यालय को अनुदान प्राप्त होते हैं। यह सारा धन हमारा है। लेकिन हमें यह जानने का कोई हक़ नहीं है कि यह धन कैसे ख़र्च होता है। जब तक हम वित्तीय व प्रशासनिक जवाबदेही का हक़ हासिल नहीं करेंगे, हमें एक स्तरहीन और निकृष्ट शैक्षणिक माहौल मिलता रहेगा।

एक नये क्रान्तिकारी छात्र संगठन की ज़रूरत

ज़ाहिर है कि जिन चुनावबाज़ पार्टियों की आर्थिक और शैक्षणिक नीतियों के कारण आज हमें इन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, उनके छात्र संगठन इनका समाधान करने के लिए कुछ भी नहीं कर सकते हैं। ये छात्र संगठन बस विश्वविद्यालय कैम्पस को धनबल-बाहुबल की राजनीति का अड्डा और एम.एल.ए.-एम.पी. बनने का ट्रेनिंग सेण्टर बना सकते हैं। ऐसे में, हमारा स्पष्ट मानना है कि छात्रों की वास्तविक समस्याओं के लिए संघर्ष की अगुवाई कोई ऐसा छात्र संगठन ही कर सकता है जो किसी भी चुनावी पार्टी से न जुड़ा हो। इसी सोच के साथ ‘दिशा छात्र संगठन’ का गठन किया गया था। यह छात्रों की पहल पर बना एक स्वतन्त्र क्रान्तिकारी छात्र संगठन है जो कि शहीदे-आज़म भगतसिंह की विरासत और विचारों में भरोसा करता है। ‘दिशा छात्र संगठन’ का मानना है कि आज पूरी दुनिया और हमारे देश में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और समाज जिस संकट का शिकार हैं, वह वास्तव में साम्राज्यवाद-पूँजीवाद का अन्तकारी संकट है जो इस व्यवस्था के क्रान्तिकारी ध्वंस और एक ऐसी समतामूलक व्यवस्था के निर्माण के साथ ही समाप्त होगा, जिसका सपना भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव जैसे महान युवा क्रान्तिकारियों ने देखा था| यानी एक ऐसा समाज जिसमें उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर आम मेहनतकश जनता का हक़ हो और फैसला लेने की ताक़त उनके हाथों में हो। एक ऐसे समाज के निर्माण में निश्चित रूप से छात्र आन्दोलन की भी एक भूमिका होगी। ‘दिशा छात्र संगठन’ एक ऐसे छात्र आन्दोलन को खड़ा करना अपना लक्ष्य मानता है। लेकिन इस दूरगामी लक्ष्य के साथ शिक्षा और रोज़गार के अपने हक़ के लिए लड़ना छात्रों के लिए अस्तित्व का प्रश्न है और तात्कालिक तौर पर इन मुद्दों पर संघर्ष करना ‘दिशा’ अपने लक्ष्यों में से एक मानता है। इसी के मद्देनज़र हम एक प्रस्तावित साझा न्यूनतम कार्यक्रम आपके समक्ष रख रहे हैं।

‘दिशा’ का नारा! भविष्य हमारा!

‘दिशा छात्र संगठन’ का मानना है कि आज ‘शिक्षा और रोज़गार-हमारा जन्मसिद्ध अधिकार’ का नारा छात्र-युवा आन्दोलन का केन्द्रीय नारा है। हमें संविधान में ऐसे संशोधन की माँग करनी चाहिए जो कि शिक्षा और रोज़गार को हर नागरिक का मूलभूत अधिकार घोषित करे और इसे राज्य की ज़िम्मेदारी बनाये कि वह हरेक नागरिक को निःशुल्क व समान शिक्षा और रोज़गार मुहैया कराये। यदि सरकार पूँजीपतियों पर जनता की गाढ़ी मेहनत की कमाई को लुटाना बन्द कर दे और देश में जनोन्मुख, रोज़गारोन्मुख विकास का रास्ता चुने तो यह कोई असम्भव कार्य नहीं है। साथ ही हमारा यह भी मानना है कि शिक्षा का अनौपचारिकीकरण रोका जाना चाहिए जिसके तहत शिक्षकों की नयी भर्तियाँ नहीं की जा रही हैं, या की भी जा रही हैं तो ठेके, कैजुअल या एडहॉक के आधार पर की जा रही हैं। वह शिक्षक कभी रचनात्मक तरीके से छात्रों को शिक्षा नहीं दे सकता जिसके उपर अनिश्चितता की तलवार लटकाकर रखी गयी हो।

‘दिशा छात्र संगठन’ का मानना है कि आज कैम्पसों के भीतर छात्रों के लिए मौजूद जनवादी स्पेस को लगातार समाप्त किया जा रहा है। मोदी सरकार द्वारा नियुक्त सुब्रमन्यम समिति ने सिफारिश की है कि छात्रों की राजनीति पर रोक लगायी जानी चाहिए! इसका अर्थ यह है कि चुनावी पार्टियों के लग्गू-भग्गू छात्र संगठनों की गुण्डागर्दी को तो पूरी आज़ादी, लेकिन जब आम छात्र अपने हक़ों के लिए कोई जेनुइन संघर्ष करें, तो उन्हें ‘राजनीति से दूर रहने’ की हिदायतें दी जाएँ। सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन सोचे-समझे तौर पर कैम्पस का विराजनीतिकरण करने के लिए जनवादी स्पेस को संकुचित कर रहा है। चुनावी पार्टियों के छात्र संगठनों से विश्वविद्यालय प्रशासन को कोई ज़्यादा असुविधा नहीं है क्योंकि वे छात्रों की बुनियादी माँगों लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन को वास्तविक रूप से कभी निशाना बनाते ही नहीं, सिर्फ दिखावटी नारेबाज़ी करते हैं! इसलिए हमारा नारा है-‘कैम्पस है हम छात्रों का! गुण्डों की जागीर नहीं!’

‘दिशा छात्र संगठन’ का मानना है कि आम छात्रों के बीच की वर्ग एकजुटता को तोड़ने के लिए ही चुनावबाज़ पार्टियों के छात्र संगठन जाति, धर्म और क्षेत्र का मसला उठाते हैं और अस्मितावादी राजनीति करते हैं। आरक्षण के मुद्दे को भी सरकार इसीलिए उठाती है, जो कि वास्तव में एक ग़ैर-मुद्दा है। यदि छात्र आन्दोलन ‘सभी को निशुल्क व समान शिक्षा व सभी को रोज़गार’ को अपनी केन्द्रीय माँग बनाये तो आरक्षण का प्रश्न ही अप्रासंगिक हो जाता है। आज आरक्षण के विरोध या समर्थन की अवस्थिति अपनाना शासक वर्ग के ‘ट्रैप’ में फँसने के समान हैं। आरक्षण का विरोध करने वाले कहते हैं कि इससे मेरिट के साथ खिलवाड़ होता है। लेकिन वास्तव में अगर वे क्षमता को लेकर इतने चिन्तित हैं तो उन्होंने तमाम मेडिकल, इंजीनियरिंग व प्रबन्धन के संस्थानों में एन.आर.आई. व मैनेजमेण्ट कोटा का विरोध क्यों नहीं किया? क्या सभी धन्नासेठों की औलादें ‘जीनियस’ पैदा होती हैं? स्पष्ट है कि वे आरक्षण का विरोध अपने सवर्णवादी मानसिकता के कारण करते हैं। वहीं हम आरक्षण के समर्थकों से भी पूछते हैं कि अगर तीन दशकों के आरक्षण के बाद आज भी कुल दलित आबादी का लगभग 95 प्रतिशत खेतिहर या औद्योगिक मज़दूर है और इतने सालों में केवल 5 प्रतिशत दलित आबादी को ही उसका लाभ पहुँचा है, तो आख़िर दलित मुक्ति के लिए इसी के भरोसे बैठे रहने से क्या होगा, ख़ासकर तब जबकि सरकारी नौकरियाँ करीब 2 प्रतिशत की रफ्ऱतार से घट रही हैं? हमारा मानना है कि हम आरक्षण-समर्थन या आरक्षण-विरोध की अवस्थिति को अपनाने के लिए बाध्य नहीं हैं। हम एक तीसरी क्रान्तिकारी अवस्थिति अपना सकते हैं और हमें अपनानी चाहिएः छात्र आन्दोलन को सभी के लिए निशुल्क और समान शिक्षा और सभी के लिए रोज़गार के लिए लड़ना चाहिए! यही वह अवस्थिति है जो कि जातिगत बँटवारे को ख़त्म कर छात्रों मे वर्ग-एकजुटता पैदा कर सकती है। ‘दिशा’ का यह भी मानना है कि भारतीय जनमानस में गहराई से पैठी जातिवाद की चेतना के ख़िलाफ लगातार और सचेतन तौर पर प्रचार करने की आवश्यकता है। इसलिए हमारा नारा है-‘जातिवाद-साम्प्रदायिकता-क्षेत्रवाद का नाश हो!’

‘दिशा छात्र संगठन’ का स्पष्ट मानना है कि जो छात्र आन्दोलन स्त्री-पुरुष समानता में यक़ीन नहीं करता वह कभी भी अपने मक़सद को पूरा नहीं कर सकता। आज पूरे देश में स्त्रियों के विरुद्ध जो जघन्य अपराध हो रहे हैं उसके पीछे पूँजीवादी बाज़ारू संस्कृति और पितृसत्तात्मक मानसिकता है जो कि स्त्री को भोग और उपभोग की वस्तु बना देती है। किसी भी क्रान्तिकारी छात्र संगठन की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह स्त्रियों के हर प्रकार के उत्पीड़न का विरोध करे और स्त्री-पुरुष समानता पर यक़ीन और अमल करे।

‘दिशा छात्र संगठन’ का मानना है कि किसी भी क्रान्तिकारी छात्र संगठन को हर जनपक्षधर संघर्ष में भागीदारी और सहायता करनी चाहिए, चाहे वह मज़दूरों का हो, ग़रीब किसानों का हो, दलितों का हो, स्त्रियों का हो या फिर दमित राष्ट्रीयताओं का हो। मोदी सरकार के आने के बाद से देश में दलितों और स्त्रियों के विरुद्ध जघन्य अपराधों में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। एक क्रान्तिकारी छात्र संगठन को इसके ख़िलाफ पुरज़ोर आवाज़ उठानी चाहिए। देश में तमाम हिस्सों में दमित राष्ट्रीयताओं को दमनकारी कानूनों के ज़रिये कुचला जा रहा है। हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने स्वीकार किया है कि मणिपुर की लगभग हरेक मुठभेड़ फर्जी है। आज कश्मीर में जो हो रहा है, वह भयंकर राजकीय दमन है। किसी भी देश द्वारा ज़ोर-ज़बर्दस्ती के विरोध में हमें कश्मीरी कौम के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करना चाहिए और राजकीय दमन का विरोध करना चाहिए। एक क्रान्तिकारी छात्र संगठन को इन प्रश्नों पर सही अवस्थिति अपनानी होगी।

दिशा छात्र संगठन भगवा ब्रिगेड द्वारा फैलाये जा रहे साम्प्रदायिक फासीवादी उन्माद का विरोध करता है। भारत के साम्प्रदायिक फासीवादी हिटलर और मुसोलिनी की जारज सन्तानें हैं और वे भारत में भी उसी प्रकार की फासीवादी तानाशाही को स्थापित करना चाहते हैं जैसा कि इटली और जर्मनी में हुआ था। वहाँ अल्पसंख्यक यहूदी उनके निशाने पर थे तो यहाँ धार्मिक अल्पसंख्यक और दलित उनके निशाने पर हैं। वे इस देश में पूँजीपतियों की बर्बरतम और नग्नतम तानाशाही लागू करना चाहते हैं, जैसा कि मोदी सरकार की हरक़तों से अब देश की जनता के सामने भी साफ हो रहा है। हम माँग करते हैं कि सख़्त कानून के ज़रिये धर्म को एक व्यक्तिगत मसला बनाया जाय, इसे राजनीति और सामाजिक जीवन से पूरी तरह अलग किया जाय और जो भी इसका उल्लंघन करे उसे कड़े से कड़ा दण्ड देने का प्रावधान किया जाय। साथ ही, सड़कों पर उतरकर इंसाफपसन्द छात्रों-युवाओं और मज़दूरों को फासीवादियों का डटकर मुकाबला करना होगा।

इस पूरे साझा न्यूनतम कार्यक्रम पर अमल कोई ऐसा छात्र संगठन ही कर सकता है जो कि किसी भी चुनावबाज़ पार्टी से न जुड़ा हो चाहे उसके झण्डे का रंग कुछ भी हो। इन्हीं चुनावी पार्टियों ने आज पूरी छात्र राजनीति को सांसद-विधायक-अपराधी तैयार करने का प्रशिक्षण केन्द्र बना दिया है। इसलिए हमारा नारा है-‘छात्र राजनीति को एम.एल.ए.-एम.पी. बनने का ट्रेनिंग सेण्टर मत बने रहने दो!’

यह हमारा सीमित न्यूनतम कार्यक्रम है। हम इस कार्यक्रम के आधार पर हर संवेदनशील, न्यायप्रिय, साहसी और प्रगतिशील छात्र व छात्रा का आह्वान करते हैं कि एक नये स्वतन्त्र क्रान्तिकारी छात्र संगठन के निर्माण के कार्य में हमारा साथ दें, हमारे हमसफर बनें। आइये, छात्र राजनीति को एक बार फिर से छात्र अधिकारों के लिए संघर्ष का मंच बनाया जाय! आइये, छात्र राजनीति को एक क्रान्तिकारी मोड़ दें क्योंकि छात्रों ने इतिहास में देश की राजनीति की भी दिशा मोड़ दी है! उम्मीद है कि आप हमारा साथ अवश्य देंगे।

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,

दिशा छात्र संगठन