1857 के शहीदों को याद करो!
देश की जनता की जुझारू एकता और साम्‍प्रदायिक सद्भाव स्‍थापित करो!

1857 के विद्रोह के 168 साल पूरे होने के मौके पर

1857 के शहीदों को याद करो!
देश की जनता की जुझारू एकता और साम्‍प्रदायिक सद्भाव स्‍थापित करो!
साम्‍प्रदायिकता का विरोध करो! युद्धोन्‍माद का विरोध करो!

नौजवान दोस्‍तो,
आज से 168 साल पहले 10 मई के दिन अंग्रेज़ों की ज़ालिम हुकूमत के ख़‍िलाफ़ देश के मेहनतकश किसानों, सिपाहियों और आम लोगों ने एक ज़बरदस्‍त बग़ावत का ऐलान किया था। मेरठ की छावनी में 10 मई 1857 के दिन एक विद्रोह की शुरुआत हुई, लेकिन यह विद्रोह जल्‍द ही भारत के एक विशाल हिस्‍से में फैल गया। इस विद्रोह में किसानों की भारी आबादी ने हिस्‍सा लिया। किसी अन्‍य नेतृत्‍व के अभाव में विद्रोह का नेतृत्‍व कई जगह अलग-अलग रियासतों के राजाओं, राजकुमारों, सेनापतियों आदि के हाथों में अवश्‍य रहा, लेकिन यह विद्रोह पुराने सामन्‍ती भारत को वापस लाने के लिए नहीं किया गया था। वास्‍तव में, यह एक जनविद्रोह था, जिसमें किसान विद्रोह का चरित्र सबसे प्रमुख था। भारी लगान, करों और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा भारत की जनता के दमन के लिए थोपे गये “सुधारों” के विरुद्ध भारतीय जनता का एक विचारणीय हिस्‍सा उठ खड़ा हुआ था। ब्रिटिश शासकों ने इसे महज़ ‘सैनिक विद्रोह’ का नाम देकर इसके इस जन-चरित्र को छिपाने का काफ़ी प्रयास किया। लेकिन इसके बारे में देश-दुनिया में लेखकों, पत्रकारों, प्रेक्षकों आदि ने जो लिखा उससे साफ़ हो गया कि यह महज़ कोई सैनिक विद्रोह नहीं रह गया था, बल्कि एक जनविद्रोह में तब्‍दील हो चुका था: एक उपनिवेशवाद-विरोधी जनविद्रोह में। जनता का व्‍यापक हिस्‍सा इसके साथ खड़ा था और केवल कुछ इलाकों के सामन्‍ती राजे-रजवाड़े व धनी वर्ग ही ब्रिटिश सत्‍ता के साथ मिलीभगत कर रहे थे और उसका साथ दे रहे थे।
इस विद्रोह की सबसे अहम बात क्‍या थी? हम आज भला 168 साल पुरानी इस घटना को क्‍यों याद कर रहे हैं? इसलिए क्‍यों इस विद्रोह में एक ख़ास बात देखने में आयी। यह बात थी देश के हिन्‍दुओं और मुसलमानों की फ़ौलादी एकता। इसके बाद से ही अंग्रेज़ों ने यह सबक लिया कि अगर देश के मेहनतकश हिन्‍दू और मुसलमान साथ होकर लड़ेंगे, तो उनकी हुकूमत के बस बचे-खुचे दिन ही बाक़ी होंगे। नतीजतन, ब्रिटिश शासन ने स्‍वयं ऐसे धार्मिक कट्टरपंथी संगठनों को प्रश्रय और बढ़ावा देने की शुरुआत की जो ग़ुलामी और शोषण के विरुद्ध भारतीय जनता के संघर्ष को हिन्‍दू-मुसलमान के नाम पर तोड़ दें। लेकिन 1857 विद्रोह की विरासत को अंग्रेज़ पूरी तरह कुचल नहीं सके। इसी से सीखते हुए शहीदे-आज़म भगतसिंह और उनके साथियों ने हमेशा क्रान्तिकारी सेक्‍युलरवाद के विचारों की हिमायत की। भगतसिंह ने 1928 में सीधे देश की जनता से कहा, “1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्‍यक्ति का व्‍यक्तिगत मसला है, इसमें दूसरे की कोई दख़ल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्‍योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता…यदि धर्म को अलग कर दिया जाय तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं।” (शहीदे-आज़म भगतसिंह, 1928, ‘साम्‍प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’)
1857 में देश की जनता ने यह कर दिखाया था। आज इसका अनुसरण करने की सबसे ज्‍़यादा ज़रूरत है। आज के हुक्‍मरान कम-से-कम इस मामले में बिल्‍कुल बर्तानवी शासन की तरह ही काम कर रहे हैं: देश की जनता देश की असली समस्‍याओं पर एक न हो सके, इसलिए उन्‍हें धर्म के नाम पर, हिन्‍दू-मुसलमान के नाम पर लड़वाया जा रहा है। इतिहासकार प्रो. ज्ञानेन्‍द्र पाण्‍डेय के शोध के इस नतीजे को कमोबेश मानना ही पड़ेगा कि देश में साम्प्रदायिकता के विष को घोलने का काम अंग्रेज़ी शासन ने ही किया था (ज्ञानेन्‍द्र पाण्‍डेय, 2012, ‘दि कंस्‍ट्रक्‍शन ऑफ़ कम्‍युनलिज्‍़म इन कलोनियल नॉर्थ इण्डिया’)। यही कारण है कि उसने स्‍वतन्‍त्रता सेनानियों और शहीदे-आज़म भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारी मुक्तियोद्धाओं का दमन तो किया, मगर कभी भी हिन्‍दू महासभा, मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों, आर.एस.एस., आदि के किसी व्‍यक्ति को हाथ तक नहीं लगाया। लगाते भी क्‍यों? इनका आज़ादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं था। उल्‍टे हिन्‍दू महासभा और संघ के लोग तो अंग्रेज़ों से क्रान्तिकारियों की मुखबिरी कर रहे थे और माफ़ीनामे लिख रहे थे, जिसके ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं। सावरकर ने 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्‍दोलन की शुरुआत में लिखा, “हिन्‍दू महासभा मानती है कि समस्‍त व्‍यावहारिक राजनीति का नेतृत्‍वकारी सिद्धान्‍त है ब्रिटिश सत्‍ता के साथ सक्रिय सहकार की नीति।” (विनायक दामोदर सावरकर, समग्र सावरकर वांगमय, हिन्‍दू राष्‍ट्र दर्शन, खण्‍ड-6, महाराष्‍ट्र प्रान्तिक हिन्‍दू सभा, पूना, 1963, पेज 474) ज्ञात हो कि 1942 में हिन्‍दू महासभा और मुस्लिम लीग प. बंगाल में प्रान्‍तीय गठबन्‍धन सरकार चला रहे थे और इन दोनों संगठनों ने धर्म के आधार पर देश के विभाजन के ब्रिटिश षड्यन्‍त्र का समर्थन किया था। इस गठजोड़ की अगुवाई करने वाले एक अन्‍य साम्‍प्रदायिक फ़ासीवादी नेता श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी ने उसी समय लिखा: “सवाल यह है कि इस (भारत छोड़ो) आन्‍दोलन से कैसे लड़ा जाय?…भारतीय लोगों को ब्रिटिश पर भरोसा है…कि वे प्रान्‍त की रक्षा और स्‍वतन्‍त्रता को क़ायम रखेंगे।” (श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी, ‘लीव्‍स फ्रॉम ए डायरी’)। इसी प्रकार संघ के गुरू गोलवलकर ने कहा था, “हिन्‍दुओं, अपनी ऊर्जा ब्रिटिश से लड़ने में बेकार मत करो, उसे हमारे आन्‍तरिक शत्रुओं यानी मुसलमानों, ईसाइयों और कम्‍युनिस्‍टों से लड़ने के लिए बचाकर रखो।” (जेयर्ड मॉर्गन मैककिनी द्वारा उद्धृत, ‘होमोजीनाइज़‍िंग नेशनलिस्‍ट्स, बडिंग फाशिस्‍ट्स, ट्रक्‍युलेण्‍ट एक्‍सेप्‍शनलिस्‍ट्स’, इण्‍टरनेशनल पॉलिटिक्‍स, न. 59 (2))
त्रासद विडम्‍बना की बात है कि इन्‍हीं साम्‍प्रदायिक फ़ासीवादियों के राजनीतिक वंशज जो आज सत्‍ता में मौजूद हैं, वे लोगों को “राष्‍ट्रवाद” और देशभक्ति के प्रमाणपत्र बाँटने में लगे हैं! जो उनके दमन और उत्‍पीड़न से विद्रोह करता है, वह उनके अनुसार देश से द्रोह करता है! यानी, उनका कहना है कि वे ही देश हैं! दुनिया भर में आततायी शासकों ने अक्‍सर यह तरक़ीब अपनायी है कि सरकार और देश का भेद ही समाप्‍त कर दिया जाय। 1857 की विरासत से भला इनका क्‍या रिश्‍ता हो सकता है? ऐसे लोग ‘देश’ जैसे शब्‍द अपनी ज़ुबान पर भी कैसे लाते हैं जो देश को अंग्रेज़ों की साम्‍प्रदायिक नीति के पदचिह्नों पर चलते हुए आज भी धर्म के नाम पर बाँट रहे हैं? देश कोई कागज़ पर बना नक्‍़शा नहीं होता, बल्कि उसमें रहने वाले मेहनतकश लोगों से बनता है। आज जब सरकार उन्‍हीं लोगों को शिक्षा, नौकरी, आवास, स्‍वास्‍थ्‍य का अधिकार नहीं दे पा रही है, तो उन्‍हें धर्म के नाम पर लड़वा रही है और जो उसके विरुद्ध आवाज़ उठाता है, उसे “देश का दुश्‍मन” बता देती है। देश और सरकार के बीच का अन्‍तर ही ख़त्‍म किया जा रहा है। सरकार के वाजिब विरोध को “देश का विरोध” घोषित किया जा रहा है। सरकार की लापरवाही की वजह से ही आतंकी हमले में दुखद रूप से मारे गये लोगों के नाम पर आज युद्धोन्‍माद भड़काया जा रहा है, समूचा सरकारी प्रचार तन्‍त्र और मीडिया इसमें लगा हुआ है। आतंकवाद भी हवा में नहीं पैदा होता। यह मौजूदा मुनाफ़ा-केन्द्रित व्‍यवस्‍था की ही पैदावार होता है। जहाँ आतंकी हमले की जाँच करवायी जानी चाहिए थी, सुरक्षा चूक की जाँच करवायी जानी चाहिए थी और ज़‍िम्‍मेदार नेताओं-नौकरशाहों को सज़ा दी जानी चाहिए थी, वहाँ पूरे देश को ही युद्ध में झोंकने की कोशिशें की जा रही हैं। इससे किसी मसले का समाधान नहीं होने वाला। ज़रा सोचिये कि इससे किसे फ़ायदा होगा? किसका नुक़सान होगा? दोनों देशों की आम मेहनतकश जनता का जिनकी कोई आपसी दुश्‍मनी नहीं है, नुक़सान होगा, उनकी मौतें होंगी और हो रही हैं, उन्‍हीं के बेटे-बेटियों की मौतें होंगी जो सिपाही हैं, और दोनों देशों के शासक वर्ग को राजनीतिक फ़ायदा होगा, विदेशी हथियार कम्‍पनियों को फ़ायदा होगा, युद्धोन्‍माद फैला रहे बिके हुए मीडिया को फ़ायदा होगा। इसी प्रकार, युद्धोन्‍माद का इस्‍तेमाल हेमन्‍त बिस्‍व सरमा जैसे भाजपा नेता देश के भीतर साम्‍प्रदायिक उन्‍माद फैलाने के लिए कर रहे हैं। हमें उनसे कहना चाहिए कि जो-जो शासक वर्गों के युद्ध का समर्थन कर रहा है, वह अपने-अपने बेटे-बेटियों को इस बेमतलब के युद्ध में लड़ने को भेज दे।

हम छात्रों-युवाओं को न तो साम्‍प्रदायिक उन्‍माद के जाल में फँसना चाहिए और न ही युद्धोन्‍माद में। हमें अपनी वर्गीय एकजुटता बनाकर रखनी चाहिए। 10 मई उसके लिए एक सही अवसर है। 1857 की बग़ावत ने हमें सिखाया था कि जनता को धर्म के नाम पर अपनी एकजुटता किसी भी हाल में नहीं टूटने देनी चाहिए। हमेशा सत्‍ता में बैठे लोग यही चाहते हैं। आज भी सत्‍ता में बैठे लोग ‘बाँटो और राज करो’ की नीति पर अमल कर हमें टुकड़े-टुकड़े में बाँट देना चाहते हैं, ताकि हम अपनी शिक्षा, रोज़गार, जनवाद और न्‍याय के मसले पर एकजुट ही न हो सकें। 1857 के शहीदों को याद करते हुए हमें अपनी जुझारू जनएकजुटता को बनाकर रखना चाहिए, हमें देश की जनता के शिक्षा, रोज़गार, चिकित्‍सा, आवास और सामाजिक सुरक्षा के अधिकार पर एकजुट होकर संघर्ष करना चाहिए, धर्म को पूरी तरह से निजी मसला घोषित कर देना चाहिए और जो भी पार्टी या दल धर्म को राजनीति के साथ मिलाये उसे अपना दुश्‍मन मानना चाहिए। यह बेहद तार्किक और सीधी-सी बात है और अगर हम इतनी-सी बात नहीं समझते तो हमारा कोई भविष्‍य नहीं, हमारा कोई भला नहीं कर सकता। क्‍या शहीदे-आज़म भगतसिंह से बड़ा कोई देशप्रेमी हो सकता है? उन्‍होंने इस मसले पर क्‍या कहा था, उनकी बात से ही हम बात समाप्‍त कर सकते हैं:

“भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है… ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नज़र आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नज़रों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं…यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली…दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं (आज यह बात पूरे मीडिया पर लागू होती है-टिप्‍पणी)। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं… इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’… बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है। दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी ख़राब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है…इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए…लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकण्‍डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुक़सान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी ज़ंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी…भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं। उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नज़र से – हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है। भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं।” (शहीदे-आज़म भगतसिंह, 1928, ‘साम्‍प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’)

शहीदे-आज़म भगतसिंह के ये शब्‍द आज हमारे मार्गदर्शक होने चाहिए। इन विचारों को समझना होगा। आज के समय में इन्‍हें विकसित करना होगा। भगतसिंह फाँसी से पहले एक अधूरी पढ़ी किताब का पन्‍ना मोड़कर अपनी जेल कोठरी से निकले थे। आज देश के क्रान्तिकारी, जनपक्षधर, सच्‍चे देशप्रेमी नौजवानों को उसी पन्‍ने से आगे पढ़ना है, ऐसे नौजवान जो जानते हैं कि देश का मतलब कोई नक्‍़शा या प्रतिमा या तस्‍वीर नहीं होता, बल्कि देश में रहने वाले मज़दूर, किसान, मेहनतकश लोग होते हैं। सवाल यह है कि हम, आप और सभी तार्किक, वैज्ञानिक, विवेकवान, न्‍यायप्रिय और संवेदनशील युवा आज के साम्‍प्रदायिक उन्‍माद और युद्धोन्‍माद के समय में दासवत इस लहर में बह जायेंगे, या फिर अपने विवेक और न्‍यायबोध का इस्‍तेमाल करते हुए हुक्‍मरानों के षड्यन्‍त्र को समझेंगे और अपने असल प्रश्‍नों, मुद्दों और समस्‍याओं पर एकजुट होंगे?
दोस्‍तो, इस सवाल का जवाब आपको और हमें तय करना ही होगा। शहीदे-आज़म भगतसिंह और उनके यशस्‍वी क्रान्तिकारी साथी इतिहास के नेपथ्‍य से उम्‍मीद भरी निगाहों के साथ देश के बहादुर और न्‍यायप्रिय युवाओं की ओर देख रहे हैं। क्‍या होगा हमारा जवाब?

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,
दिशा छात्र संगठन

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