पहलगाम पर हमले के ख़िलाफ़ “जवाबी कार्रवाई” के नाम पर देश को युद्धोन्माद में धकेलना बन्द करो!
अन्धराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद के बरक्स अपने असल मुद्दों पर एकजुट हो!!
जंग तो ख़ुद ही एक मसला है
जंग क्या मसलों का हल देगी,
आग और ख़ून आज बख़्शेगी
भूख और एहतियाज कल देगी!
साहिर लुधियानवी के ये कथन आज देश के माहौल के साथ सटीक बैठते हैं। पहलगाम पर हुए आतंकी हमले के बाद फ़ासीवादी मोदी सरकार ने ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के नाम से पाकिस्तान पर जवाबी कार्रवाई की बात कर रही है। दोनों ही देश यह दावा कर रहे हैं कि उन्होंने अपने “शत्रु” मुल्क के जहाजों और लोगों को मार गिराया है। इतना तो तय है कि इस लड़ाई में कई जाने गयी हैं, जो निश्चित ही आम घरों से आने वाले बेटे-बेटियों की हैं। इस दौरान देश के कई विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के भीतर मॉक ड्रिल किये जा रहे हैं, और छात्रों को इस चीज़ की ट्रेंनिग दी जा रही है कि युद्ध जैसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए।
पहलगाम हमले के बाद ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के ज़रिए मोदी सरकार एक बार फिर कुछ ज़रूरी सवालों को जनता की आँखों से ओझल करने का काम कर रही है। सबसे पहला सवाल तो यही है कि कश्मीर में इतनी अधिक सेना की तैनाती के बावजूद सुरक्षा में इतनी बड़ी चूक कैसे हो सकती है। यह मोदी सरकार के तो उन दावों की धज्जियाँ उड़ा देता है जिसमें वह धारा 370 के हटने के बाद कश्मीर में “सामान्य स्थिति” और आतंकवाद की कमर तोड़ने की खोखली बातें करती है। पुलवामा हमले के बाद भी ठीक यही सवाल उठा था, लेकिन उसके बाद भी अन्धराष्ट्रवाद की आग में इस सवाल को ओझल कर दिया गया कि पुलवामा में सुरक्षा की चूक के पीछे कौन ज़िम्मेदार है। सत्यपाल मलिक द्वारा उठाये गये सवालों को भी इस सरकार द्वारा दबा दिया गया। इस दफ़ा एक बार फिर सुरक्षा के तमाम सवालों को यह सरकार दरकिनार कर अन्धराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद की आग में जनता को झुलसाने का काम कर रही है।
दूसरा सवाल यह उठाने की ज़रूरत है कि ऐसा क्यों होता है कि जब-जब चुनाव का माहौल होता है और जनता में बुनियादी मसलों को लेकर असन्तोष होता है, तभी अचानक सीमा पर तनाव बढ़ जाता है। हम सभी जानते हैं कि मोदी सरकार अपने तमाम हवाई वायदों पर फिसड्डी साबित हो चुकी है। लगातार शिक्षा का बाज़ारीकरण किया जा रहा है और रोज़गार के नाम पर छात्रों को “आत्मनिर्भर” बनने और पकौड़े तलने की नसीहतें दी जा रही हैं। देशभर में केन्द्रीय और राजकीय विश्वविद्यालयों की फ़ीसे बढ़ायी जा रही हैं, कैम्पस के भीतर एक-एक कर जनवादी स्पेस को ख़त्म किया जा रहा है, देशभर में विश्वविद्यालय प्रशासन के द्वारा अपने हक़ों की आवाज़ उठाने वाले छात्रों को निलम्बित और निष्कासित कर दिया जा रहा है, कैम्पस के भीतर पुलिस की मौजूदगी को सामान्य बताया जा रहा है। इतना ही नहीं विश्वविद्यालयों के भीतर संघ के लोगों को घुसाया जा रहा है, और स्कूल से लेकर कॉलेज तक के पाठ्यक्रमों में बदलाव कर इतिहास, विज्ञान और तार्किकता पर हमले किये जा रहे हैं। इस बात को कौन भूल सकता है कि सेना के लिए छाती पीट-पीटकर वोट माँगने वाली मोदी सरकार ने अग्निवीर के तहत सेना में भी ठेके पर भर्ती की शुरुआत कर दी। चुनाव से पहले कांग्रेस द्वारा देश बेचने के नाम पर वोट माँगने वाली इसी सरकार में रेलवे से लेकर तमाम सरकारी उपक्रमों को बेचने में पुरानी सारी सरकारों को पीछे छोड़ दिया।
इन तमाम मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने के लिए यह सरकार जनता को धार्मिक उन्माद में धकेल रही है। इस हमले के बाद आरएसएस की गुण्डा वाहिनियों ने देश के अलग-अलग इलाक़ों में रहने वाले कश्मीरी छात्रों पर हमले किये, और एक बड़ी मुस्लिम आबादी के बीच डर का माहौल बनाया। असल में मोदी सरकार और संघ परिवार इस मसले को धार्मिक रंग देकर ‘अन्य’ की छवि को और मज़बूत करने का काम कर रही है, जो कि फ़ासीवाद की सामान्य विशेषताओं में से एक होता है, मसलन एक ऐसा नक़ली शत्रु खड़ा किया जाये (जो आमतौर पर विचारणीय अल्पसंख्यक होता है) जिसके ऊपर जनता की तमाम समस्याओं का ठीकरा फोड़ा जा सके। यह अलग बात है कि इस बार फ़ासीवादियों का यह प्रचार आम जनता के बीच इतना प्रचलित नहीं हो सका, जिसके बाद युद्धोन्माद के नये हथकण्डे अपनाकर मोदी-शाह जनता के बीच नफ़रत का ज़हर घोल रहे हैं।
युद्धोन्माद के इस बहाव में न बहकर आज छात्रों-युवाओं को यह समझने की ज़रूरत है कि क्या शासक वर्गों के बीच का आपसी युद्ध वाक़ई कोई विकल्प देता है! अगर ऐसा होता तो दुनिया में चल रहे तमाम युद्ध अपने आप में एक सही नतीजे की ओर ले जाते। लेकिन हम सब जानते हैं कि इन युद्धों ने हमेशा से ही अगर किसी को फ़ायदा पहुँचाया भी है तो वह है शासक वर्ग, और इसका नुक़सान आम मेहनतकश आबादी ने ही उठाया है। युद्ध के दौरान अतिरिक्त आर्थिक ख़र्च के बोझ उठाने से लेकर सीमा पर मारे जाने वाले जवान तक आम घरों के ही लोग होते हैं। हाँ, इससे मोदी सरकार अपने वोटों की संख्या में ज़रूर इज़ाफ़ा कर लेगी, और अवाम को धर्म और अन्धराष्ट्रवाद की आग में झोंक देगी।
आरएसएस और भाजपा के इस षड्यंत्र को बेनक़ाब करने के बजाय आज का पूरा तथाकथित प्रगतिशील तबका घुटनों पर आ गया है। सीपीई, सीपीएम जैसी गद्दार पार्टियों ने भी संघ द्वारा इस युद्धोन्माद भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इन बेशर्म पार्टियों ने आरएसएस और भाजपा के फ़ासीवादी एजेण्डे को अपना पूरा समर्थन ज़ाहिर किया है। साथ ही इन्हीं पार्टियों के पुछल्ले छात्र संगठनों ने या तो इस मसले पर चुप्पी साधकर फ़ासिस्टों को मौन समर्थन दिया है या फिर सीधे उनकी प्रचार मशीन के रूप में काम कर रहे हैं। एक बार फिर इन पार्टियों ने अपनी ऐतिहासिक गद्दारी का सबूत आम जनता के सामने रख दिया है, और यह साबित कर दिया है कि फ़ासीवादी उभार में इन गद्दार पार्टियों की अहम भूमिका होती है। साथ ही ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ की ‘प्रेस ब्रीफिंग’ के दौरान दो महिला अधिकारियों में एक मुस्लिम महिला को खड़ाकर फ़ासीवादियों ने यह दिखा दिया है कि पहचान की राजनीति फ़ासीवादियों से बेहतर और कोई नहीं कर सकता, और पहचान की राजनीति की अन्तिम परिणति अन्ततोगत्वा फ़ासीवाद के सामने घुटने टेकने की ही होती है। उदाहरण के लिए इस बार भी फ़ासीवादियों के इस क़दम की पहचान की राजनीति करने वालों के द्वारा सराहना की जा रही है।
आज हमें इस मसले पर सही रुख़ इस रूप में अपनाना चाहिए कि हमें युद्ध और युद्धोन्माद के ख़िलाफ़ अपना पक्ष ज़ाहिर करना चाहिए। दिशा छात्र संगठन की यह माँग है कि तत्काल भारत और पाकिस्तान सीमा पर शान्ति बहाल करे। साथ ही पहलगाम पर हुए आतंकी हमले की निष्पक्ष जाँच करे।हम देश की तमाम छात्र-युवा आबादी से यह अपील करते हैं कि फ़ासिस्टों द्वारा शुरू किये गये युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवादी लहर में कतई न बहें। वे यही चाहते हैं कि हम अपने असल मसलों को भूलकर अपना ध्यान पाकिस्तान और देश के मुस्लिमों पर केन्द्रित करें, बल्कि इसके विपरीत हमें अपने असल मुद्दों पर एकजुट होकर आरएसएस और भाजपा के इस फ़ासीवादी एजेण्डे से न सिर्फ़ बचना होगा, बल्कि इसे बेनक़ाब भी करना होगा।
