दोस्तो,
गत 20 सितम्बर को महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय की एम. कॉम. (वाणिज्य संकाय) की एक छात्रा ने छात्रावास में ही अपना जीवन समाप्त कर लिया। बेशक उक्त छात्रा के इस कदम को किसी भी रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता किन्तु ऐसे कदम हम पर, हमारी शिक्षा व्यवस्था पर और साथ ही हमारे समाज पर सवाल ज़रूर खड़े करते हैं। पहला सवाल तो हम पर ही है कि क्या हम कैरियर बनाने की चूहा दौड़ और रोज़गार की आपाधापी के बीच अपने लिए जगह सुरक्षित करने की मारामारी में इतना खो गये हैं कि हमें ज़रा भी अहसास नहीं है कि हमारे आस-पास हो क्या रहा है? क्या हमारी उस साथी ने किसी को इस लायक नहीं समझा जिसके साथ बात करके वह अपना मन हल्का कर लेती और शायद ज़िन्दगी की बजाय मौत को गले ना लगाती? और यदि यह सच है तो क्या यह हमारे लिए शर्म की बात नहीं है! हमारी संवेदनशीलता भी जैसे चुकती जा रही है कि ऐसी घटनाएँ हमारे लिए आम सी हो गयी हैं, हमारी ज़िन्दगियों पर जैसे कुछ असर ही नहीं पड़ता! तोतारटन्त और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में हम इस कदर उलझे रहते हैं कि ऐसी घटनाओं के कारणों पर सोचने का हमारे पास समय ही कहाँ होता है! जो हमारे अन्दर की इंसानियत को खत्म करे ऐसे कैरियर वाद पर लानत है, और यदि ऐसे मुद्दे हमारे अन्तर्मन को नहीं छूते, हमें सोचने के लिए मजबूर नहीं करते तो हम पर भी लानत है!
दूसरा सवाल हमारी शिक्षा व्यवस्था पर है। शिक्षा और ज्ञान का पहला काम यही होता है कि वह हमें आवश्यकता का गुलाम न बनाये बल्कि हमें स्वतंत्रता की मंजिल में लेकर जाये। समाज में मौजूद तमाम दिक्कत-परेशानियों का समाधान हमारे सामने रखे। किन्तु आज की शिक्षा व्यवस्था अपने आप में ही हमारे ऊपर बोझ बनकर रह गयी है। शिक्षा का काम आज सिर्फ़ मुनाफाखोरों की जमात की सेवा करना भर रह गया है। मानविकी विषय (ह्यूमनिटीज) आज एक तरह से मृत्युशैया पर पड़े हैं। मैनेजमेण्ट और तकनीकी शिक्षा पर इसीलिए जोर दिया जा रहा है ताकि सस्ते और कुशल मज़दूर देशी और विदेशी पूँजी की ज़रूरत को पूरा कर सकें। आज शिक्षा एक बिकाऊ माल के समान है यदि आपकी जेब में पैसा है तो आप तथाकथित अच्छी शिक्षा हासिल करके पैसा पीट सकते हैं नहीं तो ऐसे ही कैम्पसों में अपना समय खराब करिये जहाँ न तो पक्के शिक्षक हों न ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ही हो। माँ-बाप भी एक तरह से अपने बच्चों की शिक्षा पर निवेश इसी उम्मीद के साथ करते हैं ताकि जल्द ही नौकरी मिले और खूब कमाई हो। नौकरी के मामले में एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति है और जब छात्र अभिभावकों की हवाई उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाते तो बेवजह अपराधबोध में रहते हैं। उन्हें ज़िन्दगी का सामना करने की बजाय मौत को गले लगाना आसान लगता है।
तीसरी सवाल हमारे समाज पर है। दोस्तो, ज़िन्दगी बेहद प्यारी चीज़ होती है कोई इसे ऐसे ही नहीं गँवाना चाहता। आख़िर कुछ कारण ज़रूर होते हैं जो इस तरह का मानवद्रोही कदम उठाने के लिए इंसान को मजबूर करते हैं। शायद ही कोई ऐसा दिन बीतता होगा जिस दिन देश में कोई न कोई छात्र-युवा आत्महत्या न करता हो। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में हर साल करीब 8 लाख लोग आत्महत्या करते हैं जिनमें करीब 21 फीसदी भारत के होते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था अपने मूल से ही समाज में अलगाव पैदा करती है, सब कुछ मुनाफ़े को केंद्र में रखकर किया जाता है न की मानव को। समाज में जैसे ही पूँजी की पैठ बढ़ती है वैसे ही मानवीय रिश्तों को रुपये-पैसे के साथ तोला जाने लगता है। आज यदि देखा जाये तो चारों तरफ़ अलगाव और संवादहीनता का माहौल पसरा है। बिना फ़ायदे को ध्यान में रखे हुए बनने वाले रिश्ते आज ख़त्म होते जा रहे हैं। पूँजीवादी समाज का अलगाव, बेगानापन, असंवेदनशीलता इत्यादि इंसानी रिश्तों और दोस्तियों को दीमक की तरह चाट कर खोखला बना रहे हैं। हमारे यहाँ पर प्यार-प्रेम भी कई बार आत्महत्या जैसे कदम उठाने का कारण बनते हैं जिनकी ज़िम्मेदारी भी दकियानूसी और कूपमण्डूक समाज पर ही है। ऐसी कोई भी समस्या नहीं होती जिसका कि कोई समाधान न हो। किन्तु हमारे चारों तरफ़ खड़ी अदृश्य दीवारें व्यक्ति को और भी अधिक तनाव और अकेलेपन की खाई में धकेल देती हैं। असल में आज की जा रही आत्महत्याएँ आज की बेरहम व्यवस्था द्वारा की जा रही हत्याएँ हैं। एक मुनाफाकेन्द्रित व्यवस्था से हम यही उम्मीद कर सकते हैं और यदि हममें ज़रा भी संवेदनशीलता शेष है तो हमें अवश्य व्यवस्था के विकल्प के बारे में सोचना चाहिए। पूँजीवादी संस्कृति के बरक्स एक स्वस्थ संस्कृति और जीवन मूल्यों को जानना चाहिए और अन्य लोगों तक पहुँचाना चाहिए वरना हो सकता है कल को हमारा कोई अजीज़ और प्यारा भी व्यवस्था का शिकार बन जाये। ‘दिशा छात्र संगठन’ छात्रों-युवाओं के बुनियादी मुद्दों को लेकर काम करने के साथ ही एक मानवकेन्द्रित व्यवस्था, सही जीवन मूल्यों और एक स्वस्थ संस्कृति के सृजन की दिशा में भी प्रयासरत है। यदि आप भी ऐसा ही सोचते हैं तो हमें बातचीत करने की ज़रूरत है। हर समाज बदलता है हमारा समाज भी इसका अपवाद नहीं होगा। इसलिए क्यों न हम भी इसके लिए यथासम्भव प्रयास करें।
– क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ –
दिशा छात्र संगठन (महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय रोहतक इकाई, हरियाणा)