भयाक्रान्त विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा दिशा छात्र संगठन पर गैर-कानूनी प्रतिबन्ध
26 नवम्बर को लखनऊ विश्वविद्यालय प्रशासन ने लखनऊ विश्वविद्यालय में नवगठित छात्र संगठन दिशा छात्र संगठन पर गैर-कानूनी और गैर-जनवादी तरीके से प्रतिबन्ध लगा दिया। ज्ञात होकि लखनऊ विश्वविद्यालय के हज़ारों छात्र पिछले एक माह से दिशा छात्र संगठन की अगुआई में कैम्पस के भीतर मौजूद समस्याओं, प्रशासन के तानाशाहीपूर्ण रवैये, भ्रष्टाचार, बढ़ती फीसों और प्रॉक्टर ए.एन. सिंह के अत्याचारी रवैये के विरुध्द एक आन्दोलन चला रहे थे। इस आन्दोलन को 18 नवम्बर को शानदार विजय प्राप्त हुई। दिशा छात्र संगठन ने इस सत्र से लखनऊ विश्वविद्यालय में शुरुआत की है लेकिन शिक्षा और रोज़गार से जुड़े सवालों और व्यापक सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर गोरखपुर विश्वविद्यालय में यह करीब दो दशक से और दिल्ली विश्वविद्यालय में पिछले करीब एक दशक से सक्रिय है। उत्तर प्रदेश और पंजाब के विभिन्न शहरों में भी दिशा की अनेक इकाइयाँ काम कर रही हैं। दिशा छात्र संगठन ने अक्टूबर माह में लखनऊ विश्वविद्यालय की समस्याओं पर एक पर्चा निकाला- ‘यह कैसा विश्वविद्यालय?’ लखनऊ विश्वविद्यालय सही मायनों में विश्वविद्यालय कहलाने की शर्तों को पूरा नहीं करता। दाखिले से लेकर परीक्षा तक की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार और अनियमितता का बोलबाला है। यहाँ स्नातक पाठयक्रमों के लिए दाखिले का फार्म 350 रुपये में बिकता है जबकि स्नातकोत्तर पाठयक्रमों के लिए दाखिले फार्म की कीमत 500 रुपये है। एक फार्म से आप सिर्फ एक पाठयक्रम में आवेदन कर सकते हैं। यानी, अगर कोई छात्र तीन स्नातकोत्तर पाठयक्रमों में एक साथ आवेदन करना चाहता है तो उसे दाखिले की खिड़की पर ही 1500 रुपयों की आवश्यकता होगी! यह अपने आप में गैर-कानूनी है। कोई विश्वविद्यालय दाखिला फार्म लागत शुल्क से अधिक कीमत में नहीं बेच सकता है। अगर वह ऐसा करता है तो वह फार्म बेचकर व्यापार कर रहा है और मुनाफा कमा रहा है। लखनऊ विश्वविद्यालय में यही हो रहा है। तमाम संकायों में अयोग्य शिक्षकों की भरमार है जो स्वयं केवल एम.ए. या एम.एससी. करके एम.ए. और एम.एससी. के छात्रों को पढ़ा रहे हैं। सांध्य कक्षाओं के लिए शिक्षकों की भर्ती तक नहीं की गई है। तमाम पाठयक्रमों में योग्य आवेदकों के होने के बावजूद दाखिले नहीं दिये गये। बात-बात पर जुर्माना करना, जैसे कि कैम्पस में छात्रों द्वारा तेज़ बात करने या गाना गाने पर, यहां आम बात है। हर संभव मौका निकाल कर प्रशासन छात्रों पर भारी-भरकम विलम्ब शुल्क थोप देता है। इसके लिए कोई मानकीकृत व्यवस्था नहीं है। छात्रावासों की स्थिति तो और भी दयनीय है। लड़कों के एक भी छात्रावास में मेस की व्यवस्था नहीं है। पानी की टंकियों में बन्दर नहाते हैं। मुख्य द्वार 24 घण्टे बन्द रहता है। छात्र अपनी साइकिल तक अन्दर नहीं रख सकते। आधी रात को पुलिस के छापे इस तरह डाले जाते हैं मानो छात्र आतंकवादी हों। एक पल के लिए छात्र अपने किसी मित्र को या सहपाठी को और यहां तक कि सम्बन्धाी को छात्रावास के भीतर नहीं ला सकते हैं। ऊपर से छात्रावासों की फीस पिछले तीन वर्षों में दो बार बढ़ाई जा चुकी है, पहले 1700 रुपये से 3200 रुपये और फिर 5800 रुपये। नतीजा यह है कि आज सारे छात्रावासों में सिर्फ आधे कमरों में छात्र रहते हैं। बाकी कमरों के लिए आवेदक तक नहीं हैं। इसकी तुलना अन्य विश्वविद्यालयों से की जा सकती है जहां छात्रावासों के लिए मारा-मारी होती है। इसके अतिरिक्त, विश्वविद्यालय में अभी तक छात्रसंघ बहाल नहीं हुआ है जिसके कारण छात्रों के पास कोई भी ऐसा मंच नहीं है जिसके जरिेये वे अपनी सुनवाई सुनिश्चित कर सकें। यह सच है कि जब छात्रसंघ था तो वह चुनावी, भ्रष्ट और अपराधी राजनीति का अड्डा बन गया था, लेकिन इसका इलाज यह नहीं है कि छात्रों को छात्रसंघ के उनके अधिकार से ही वंचित कर दिया जाय। बेबीटब के गंदे पानी के साथ बेबी को ही फेंक देना कहां की समझदारी है? दूसरी बात यह है कि छात्रसंघ की इस दयनीय हालत की जिम्मेदार भाजपा, कांग्रेस, सपा आदि जैसी चुनावी पार्टियों के छात्र संगठन और उनके भ्रष्ट और अपराधी नेता थे, छात्र नहीं। लेकिन अपने द्वारा ही फैलायी गयी गन्दगी को बहाना बनाकर व्यवस्था के कर्णधारों ने छात्रों को निशाना बनाया और उन्हें इस जनवादी अधिकार से वंचित कर दिया। इन्हीं मुद्दों को लेकर दिशा छात्र संगठन के सदस्य छात्र पूरे लखनऊ विश्वविद्यालय में अपने पर्चे के माध्यम से प्रचार करते हुए छात्रों को एकजुट, लामबन्द और संगठित कर रहे थे। इसके बाद नवम्बर माह में एक छात्र सभा करके दिशा छात्र संगठन ने 18-सूत्रीय मांगपत्रक तैयार किया और उसपर छात्रों के हस्ताक्षर करवाने शुरू किये। 15 दिनों के भीतर इस हस्ताक्षर अभियान में करीब डेढ़ हज़ार हस्ताक्षर जुटाए गए। 18 नवम्बर की तारीख लखनऊ विश्वविद्यालय के इतिहास में यादगार बन गयी।
दशकों से कैम्पस में पसरा सन्नाटा टूट गया। इस दिन दिशा छात्र संगठन के नेतृत्व में छात्रों का एक हुजूम कुलपति कार्यालय पहुँचा। करीब 200 छात्रों ने कुलपति कार्यालय का घेराव किया हुआ था। जमकर चली नारेबाजी के बाद कुलपति मनोज कुमार मिश्रा वहाँ आए और उन्होंने 6 छात्रों के प्रतिनिधि मण्डल को वार्ता के लिए बुलाया। दिशा छात्र संगठन के संयोजक अभि
नव सिन्हा के नेतृत्व में अमित दुबे, अविनाश, अनिल यादव आदि प्रतिनिधि मण्डल में गये। 45 मिनट चली वार्ता के बाद कुलपति श्री मिश्रा ने छात्रों की सभी मांगों को स्वीकार किया और सभी मांगों को पूरा करने के लिए अलग-अलग समय मांगा। इस पर छात्र प्रतिनिधियों ने अपनी सहमति दी और धन्यवाद ज्ञापन कर प्रतिनिधि मण्डल बाहर आ गया। इस समय तक कुलपति कार्यालय के बाहर करीब 700 छात्र एकत्र हो चुके थे। इसके बाद एक विजय जुलूस की शक्ल में सभी छात्र महमूदाबाद छात्रावास की ओर बढ़ने लगे। यह पूरा घटनाक्रम प्रॉक्टर ए.एन. सिंह को बहुत नगवार गुजरा था। इन्हीं प्रॉक्टर महोदय की तानाशाही पिछले 3 वर्षों से लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों पर जारी है। यही वह शख्स हैं जो छात्रों के हंसने-बोलने पर भी जुर्माना कर दिया करते हैं। ऐसे में छात्रों का इतना बड़ा आन्दोलन उनकी आंख की किरकिरी बना हुआ था। छात्रों को मज़ा चखाने के इरादे से उन्होंने कुछ पुलिसवालों को भेजा कि वे आन्दोलन को नेतृत्व देने वाले अभिनव सिन्हा को ‘बाहरी छात्र’ बता कर गिरफ्तार कर लें। लेकिन जुलूस में शामिल छात्रों ने पुलिस और होम गार्ड के लोगों को धक्का दे-देकर भगा दिया। इसके बाद महमूदाबाद छात्रावास में आन्दोलन की विजय की सूचना सभी को देने के लिए एक सभा की गई। सभा खत्म होते ही प्राक्टोरियल बोर्ड के कुछ लोग पुलिस को लेकर छात्रावास के बाहर पहुंच गय और दिशा छात्र संगठन के अभिनव और दीपक को पुलिस ने गिरफ्तार कर जीप में बिठा लिया। लेकिन तब तक इस पूरे घटनाक्रम की खबर सभी छात्रावासों में पहुंचने लगी थी। देखते-देखते वहाँ सैकड़ों छात्र एकत्र हो गये और पुलिस की जीप को उन्होंने जाने से रोक दिया। करीब 200 छात्र जीप के आगे लेट गये और सैकड़ों छात्रों ने जीप को चारों तरफ से घेर लिया। पुलिस ने एक-दो बार लाठी दिखाकर छात्रों को डराने की कोशिश की, लेकिन इसका उल्टा असर हुआ और छात्र और अधिक गुस्से में आ गये। करीब 1 घंटे तक पुलिस की जीप वहीं खड़ी रही। इसके बाद दिशा के नेतृत्व के कहने पर छात्रों ने जीप को वहां से जाने दिया।
नव सिन्हा के नेतृत्व में अमित दुबे, अविनाश, अनिल यादव आदि प्रतिनिधि मण्डल में गये। 45 मिनट चली वार्ता के बाद कुलपति श्री मिश्रा ने छात्रों की सभी मांगों को स्वीकार किया और सभी मांगों को पूरा करने के लिए अलग-अलग समय मांगा। इस पर छात्र प्रतिनिधियों ने अपनी सहमति दी और धन्यवाद ज्ञापन कर प्रतिनिधि मण्डल बाहर आ गया। इस समय तक कुलपति कार्यालय के बाहर करीब 700 छात्र एकत्र हो चुके थे। इसके बाद एक विजय जुलूस की शक्ल में सभी छात्र महमूदाबाद छात्रावास की ओर बढ़ने लगे। यह पूरा घटनाक्रम प्रॉक्टर ए.एन. सिंह को बहुत नगवार गुजरा था। इन्हीं प्रॉक्टर महोदय की तानाशाही पिछले 3 वर्षों से लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों पर जारी है। यही वह शख्स हैं जो छात्रों के हंसने-बोलने पर भी जुर्माना कर दिया करते हैं। ऐसे में छात्रों का इतना बड़ा आन्दोलन उनकी आंख की किरकिरी बना हुआ था। छात्रों को मज़ा चखाने के इरादे से उन्होंने कुछ पुलिसवालों को भेजा कि वे आन्दोलन को नेतृत्व देने वाले अभिनव सिन्हा को ‘बाहरी छात्र’ बता कर गिरफ्तार कर लें। लेकिन जुलूस में शामिल छात्रों ने पुलिस और होम गार्ड के लोगों को धक्का दे-देकर भगा दिया। इसके बाद महमूदाबाद छात्रावास में आन्दोलन की विजय की सूचना सभी को देने के लिए एक सभा की गई। सभा खत्म होते ही प्राक्टोरियल बोर्ड के कुछ लोग पुलिस को लेकर छात्रावास के बाहर पहुंच गय और दिशा छात्र संगठन के अभिनव और दीपक को पुलिस ने गिरफ्तार कर जीप में बिठा लिया। लेकिन तब तक इस पूरे घटनाक्रम की खबर सभी छात्रावासों में पहुंचने लगी थी। देखते-देखते वहाँ सैकड़ों छात्र एकत्र हो गये और पुलिस की जीप को उन्होंने जाने से रोक दिया। करीब 200 छात्र जीप के आगे लेट गये और सैकड़ों छात्रों ने जीप को चारों तरफ से घेर लिया। पुलिस ने एक-दो बार लाठी दिखाकर छात्रों को डराने की कोशिश की, लेकिन इसका उल्टा असर हुआ और छात्र और अधिक गुस्से में आ गये। करीब 1 घंटे तक पुलिस की जीप वहीं खड़ी रही। इसके बाद दिशा के नेतृत्व के कहने पर छात्रों ने जीप को वहां से जाने दिया।
लेकिन इसके बाद करीब हज़ार छात्रों ने वहां से कुलपति कार्यालय की ओर बढ़ना शुरू किया। तब तक कुलपति महोदय स्वयं वहां आ गये। छात्रों ने उन्हें घेर लिया और मांग की कि छात्रों के नेतृत्वकारी साथियों अभिनव व दीपक को छोड़ा जाय और उनकी सभी मांगें तत्काल पूरी करवायी जाएं। कुलपति ने दोनों मांगें मान लीं और पुलिस थाने फोन करके अभिनव और दीपक की तत्काल रिहाई का आदेश देने के साथ ही पुलिस प्रशासन और प्राक्टोरियल बोर्ड को फटकार लगाई। इसके बाद अभिनव व दीपक को वार्ता के लिए वी.सी. चैम्बर में बुलाया गया जहां उनसे पुलिस प्रशासन और प्राक्टोरियल बोर्ड के प्रतिनिधि ने माफी मांगी और कुलपति ने खेद प्रकट किया। साथ ही कुलपति ने यह भी कहा कि लखनऊ विश्वविद्यालय में कोई ‘बाहरी’ नहीं है और जो भी सही बात कहेगा उसकी बात सुनी जाएगी। छात्रों के आन्दोलन को शानदार विजय प्राप्त हुई थी। इसके बाद छात्रों ने विश्वविद्यालय के सभी छात्रों को मानी गई मांगों से अवगत कराते हुए एक पर्चा निकाला और पूरे परिसर में उसका वितरण शुरू कर दिया। 19 और 20 नवम्बर को कैम्पस के भीतर उसका वितरण किया गया। लेकिन 20 तारीख की शाम को प्रॉक्टर अपने दलबल के साथ फिर महमूदाबाद छात्रावास के बाहर पहुंचे और अभिनव और करीब 15 छात्रों को घेर लिया। उन्होंने फिर से बाहरी छात्र का मुद्दा उठाया और बहस करने लगे। लेकिन इतने में छात्र वहां एकत्र होने लगे तो प्राक्टर वहां से भाग खड़े हुए। अगले दिन करीब 150 छात्रों ने इस पूरी घटना की शिकायत करने के लिए कुलपति कार्यालय जाने का निर्णय किया। वे जब कुलपति कार्यालय पहुंचे तो कुछ ही देर में प्राक्टर कुलपति महोदय को लेकर वहां पहुंच गये। 21 नवम्बर को कुलपति महोदय की रंगत ही बदली हुई थी। उन्होंने स्वयं ‘बाहरी-अन्दरूनी’ तत्व की बात शुरू कर दी। इसके बाद छात्रों की बात सुने बगैर कुलपति महोदय वहां से चले गये। ज़ाहिर था कि प्रशासन में ऊपर से उनके ऊपर यह दबाव डाला गया था कि छात्र आन्दोलन को कुचला जाय अन्यथा कैम्पस में छात्र संघ के भंग होने के बाद जो मरघटी सन्नाटा फैलाया गया था वह टूट जाता। लेकिन सच बात तो यह थी कि वह सन्नाटा अब टूट चुका था। 24 नवम्बर को दिशा छात्र संगठन ने एक प्रेस कान्फ्रेंस करके जनता तक यह बात पहुंचायी कि उनकी मांगें क्या हैं और वे क्या चाहते हैं? साथ ही, यह बात भी रखी गयी कि लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों का आन्दोलन बाहरी तत्वों के भड़काने से नहीं उभरा था बल्कि लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्र अधिकारों के भयंकर हनन और प्रशासन की तानाशाही के कारण पैदा हुआ था। ‘बाहरी तत्व’ का प्रशासन का तर्क न तो कानूनी तौर पर सही ठहरता है और न ही राजनीतिक तौर पर। कानूनी तौर पर किसी भी भारतीय नागरिक को किसी भी सार्वजनिक संस्थान से जवाबदेही मांगने का अधिकार है। कोई भी नागरिक किसी भी सार्वजनिक विश्वविद्यालय से हिसाब मांग सकता है, अव्यवस्था पर सवाल खड़ा कर सकता है, या छात्रों को उनके अधिकारों के प्रति एकजुट और जागरूक कर सकता है। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 और जनहित याचिका के कानून का यही तर्क है। राजनीतिक और ऐतिहासिक तौर पर भी देखें तो इस तर्क का कोई आधार नहीं है। यदि अभिनव सिन्हा और दीपक लखनऊ विश्वविद्यालय के लिए ‘बाहरी तत्व’ हैं तो गांधी जी चम्पारण के किसानों के लिए, पटेल बारदोली सत्याग्रह के लिए और आज मेधा पाटेकर नर्मदा घाटी के किसानों के लिए ‘बाहरी’ हैं। यह पूरा तर्क प्रशासन तभी उठाता है जब वह डर जाता है। वह भी जानता है कि अगर छात्र आन्दोलन को कुचलना है तो सबसे पहले छात्रों को नेतृत्व से वंचित कर दिया जाय। जब प्रशासन यह तर्क छात्रों के दिमाग में बिठाने में असफल रहा तो उसने अन्त में एक असंवैधानिक और तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाते हुए विश्वविद्यालय परिसर और छात्रावासों में दिशा छात्र संगठन को प्रतिबन्धिात कर दिया। प्रशासन को यह गलतफहमी है कि ऐसा करके वह छात्र आन्दोलन को कुचल देगा। सच तो यह है कि ऐसा करने से वह छात्रों को एक बार फिर उग्र रुख अपनाने को मजबूर कर रहा है। छात्रों का आन्दोलन ऐसे प्रतिबन्धों के समक्ष घुटने नहीं टेकने वाला है। छात्र आज भी एकजुट और संगठित होकर प्रशासन की साज़िशों का सामना करने को तैयार हैं। दिशा छात्र संगठन के नेतृत्व में छात्रों ने विश्वविद्यालय प्रशासन के इस निर्णय को अदालत में चुनौती देने की तैयारी कर ली है। लखनऊ विश्वविद्यालय प्रशासन का यह रुख कोई नयी बात नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि इस किस्म की तानाशाही प्रशासन महज लखनऊ विश्वविद्यालय में ही चला रहा है। उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों में प्रशासन इसी किस्म का गैर-जनवादी रवैया अपना रहा है।