अपराधों पर चुप्पी तोड़ो! कब तक सहोगे! तुम चुप रहोगे?

अपराधों पर चुप्पी तोड़ो! कब तक सहोगे! तुम चुप रहोगे?

भाइयो, बहनो और साथियो!

विगत 28 अप्रैल को केरल के एर्नाकुलम में एक कानून की छात्रा के साथ बलात्कार और हत्या का जघन्य मामला सामने आया था। इसके कुछ ही दिन बाद केरल के ही वरकला में बलात्कार का एक अन्य मामला अख़बारों और मीडिया की सुर्खियाँ बना। देश में साक्षरता दर सबसे ज़्यादा होने के बावजूद जब केरल में ही पिछले साल 1,347 महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले दर्ज हुए हैं तो देश भर में होने वाले बलात्कारों की भयावहता का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है। साल 2004 में जहाँ बलात्कार के 18,223 मामले दर्ज हुए थे वहीं साल 2014 में इनकी संख्या बढ़कर 36,735 हो गयी! निर्भया-डेल्टा मेघवाल-जीशा और न जाने कितनी निर्दोष बलात्कार और हत्या की बली चढ़ा दी जाती हैं लेकिन कानून-पुलिस-नेताशाही और समाज मूकदर्शक बनकर देखते रह जाते हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर घण्टे करीब 22 बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं। और ये तो वे हैं जो दर्ज होते हैं, जिन्हें पुलिस द्वारा दर्ज ही नहीं किया जाता या फिर माँ-बाप के द्वारा लोक-लाज के भय से दर्ज कराया ही नहीं जाता उनकी तो गिनती ही क्या की जाये! इस समय हमारे देश में 95,000 से भी अधिक बलात्कार के मामले लम्बित पड़े हैं। अपराधियों को बहुत बार तो सजा मिल ही नहीं पाती और यदि मिलती भी है तो किसी ने ठीक ही कहा है कि देरी से मिलने वाला न्याय असल में न्याय होता ही नहीं!
वैसे तो हमारे यहाँ पर ‘यत्र नारयस्तु पुज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ जैसी बात की जाती है और नारी के सम्मान में कसीदे पढ़े जाते हैं किन्तु यथार्थ में उसे केवल भोग की वस्तु समझा जाता है और ज़रा सी देर में उसके आत्मसम्मान और उसकी इज्जत को तार-तार कर दिया जाता है। कुछ भी कहें लेकिन हम एक गज़ब के ढोंगी और पाखण्डी समाज में जी रहे हैं। एक तरफ़ तो नारी रूप की पूजा की जाती है किन्तु दूसरी तरफ़ उसे पैर की जूती भी समझा जाता है। तथाकथित पढ़ा-लिखा तबका भी लड़कियों-औरतों के प्रति घोर कुण्ठा का शिकार रहता है। यह बात दिमाग में होनी चाहिए कि जो समाज आधी आबादी को पैर की नौक पर रखे और उसके सम्मान और गौरव को हर समय तार-तार करे तो उसके बरबाद होने में ज़्यादा देर नहीं लगती! दूसरों को गुलाम समझने वाले खुद भी गुलाम बनने के लिए अभिशप्त होते हैं।
यदि हमारे अन्दर ज़रा भी आत्मसम्मान और आत्मगौरव बचा है तो हम कैसे मूकदर्शक बनकर स्त्री उत्पीड़न और बलात्कार जैसे कुकृत्यों को होते हुए देखते रह सकते हैं? हम भी आखिर इस समाज का ही हिस्सा हैं; ऐसे में आँच हमारे घरों तक पहुँचने में ज़्यादा वक्त कहाँ है? हमें इस समस्या को समझना होगा, इसकी जड़ों तक जाना होगा और कारणों को जानकर उनका निदान करना होगा।
जहाँ थानों में भी बलात्कार हो जाते हों, सांसद तक में बलात्कार के आरोपी पहुँच जाते हों और हजारों बलात्कार के मामले न्यायालयों के पोथों में दफ्न हो जाते हों, क्या वहाँ हम व्यवस्था और सरकारों के भरोसे बैठे रह सकते हैं? नहीं साथियो, ऐसा करना ‘अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना’ होगा। पहला सवाल तो हमें खुद से ही पूछना चाहिए कि क्या हम आधी आबादी को बराबरी का दर्जा देते हैं? उसके स्वयं के लिए लिये गये निर्णयों-फैसलों को मान्यता देते हैं और उसे समान अधिकार देते हैं? यदि नहीं, तो हम पर और हमारी पढ़ाई-लिखाई पर धिक्कार है! हम एक स्वस्थ समाज में रहने के लायक ही नहीं हैं! बहुत सी महिलाएँ खुद ही स्त्री विरोधी सोच से ग्रसित होती हैं उन्हें भी अपनी इस सोच से संघर्ष करना होगा क्योंकि जो खुद को पहले ही गुलाम मान बैठता है उसे दुनिया की कोई भी ताकत आज़ाद नहीं करा सकती।
दूसरा सवाल हमें मौजूदा मुनाफा केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था पर उठाना होगा जिसने हर चीज़ की तरह स्त्रियों को भी एक खरीदे-बेचे जा सकने वाले माल में तब्दील कर दिया, जिसने अश्लीलता को एक धन्धा बना दिया है। पैसे वालों की ऐयाशियों का तो क्या कहना, 1990-91 से जारी उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के बाद ज़मीन बेचकर और तमाम तरह के दन्द-फन्द से पैसा कमाकर मध्यवर्ग से भी एक नवधनाड्य हिस्से का उभार हुआ है। कुछ तो नये-नये पैसे के नशे और कुछ ‘कोढ़ में खाज’ पूँजीवाद की गलीज संस्कृति ने इसे लम्पट बनाने में योग दिया है। इसको लगता है कि यह पैसे के दम पर कुछ भी खरीद सकता है, नोच-खसोट सकता है। इसके अलावा व्यवस्था के द्वारा ग़रीब आबादी के अन्दर भी सांस्कृतिक पतनशीलता का ज़हर लगातार भरा जाता रहता है। औरतों को सिर्फ़ बच्चा (यशस्वी पुत्र) पैदा करने की मशीन समझने वाली और उन्हें चूल्हे-चौखट-घर की चारदीवारी में कैद कर देने को लालायित पितृसत्ता की मानसिकता के हर रूप को भी हमें ध्वस्त करना होगा। जहाँ किसी भी गली-नुक्कड़-चैराहे से अश्लील (पोर्न) साहित्य, वीडियो आसानी से मिल जाये और जहाँ स्त्री देह बाज़ार में बिकती हो तथा जो हर समय रूढिवादी-स्त्रीविरोधी सोच को पैदा करे ऐसी व्यवस्था के रहने का कोई औचित्य नहीं है। हमें ऐसी व्यवस्था का विकल्प सोचना ही होगा जो समाज की बड़ी आबादी को बेरोज़गारी की दलदल में धकेल दे और फिर उसे नशों-अश्लीलता की खुराक देकर नष्ट-भ्रष्ट कर दे। बेशक व्यवस्था परिवर्तन का यह रास्ता लम्बा है किन्तु हमें शुरुआत तो करनी ही होगी।
साथियो दिशा छात्र संगठन और स्त्री मुक्ति लीग का स्पष्ट मानना है कि हमें तमाम स्त्री विरोधी अपराधों के खि़लाफ़ आवाज़ उठानी होगी। ऐसे अपराधों का जुझारू संगठन बनाकर प्रतिरोध करना होगा। एकजुटता और संघर्ष के बल पर हम व्यवस्था के ठेकेदारों को बलात्कार जैसे मामलों को संज्ञान में लेने, अपराधियों को सज़ा देने, उत्पीड़ितों को न्याय देने के लिए न केवल विवश कर सकेंगे बल्कि इस संघर्ष की प्रक्रिया में हम व्यवस्था की अक्षमताओं और सीमाओं को भी जानेंगे। आपसे अपील है कि यदि आप ज़रा भी समाज का भला चाहते हैं तो इस पर्चे को यूँ ही पढ़कर रख न दें बल्कि इन मुद्दों पर विचार करें, हमसे सम्पर्क करें तथा संघर्ष में हमारे हमसफ़र और भागीदार बनें।

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथः-
दिशा छात्र संगठन

स्त्री मुक्ति लीग