दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों की तैयारियों के बीच मोदी सरकार 3.0 का पहला पूर्ण बजट!
लोक लुभावन लफ्फ़ाज़ियों के बीच छात्रों-युवाओं और आम जनता के हितों पर मोदी सरकार का एक और फ़ासीवादी हमला!!
दिल्ली और बिहार में विधानसभा चुनावों के पहले मोदी सरकार 3.0 का पहला पूर्ण बजट विगत 1 फ़रवरी 2025 को वित्त मन्त्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश किया गया । हर बार की तरह इस बार भी बजट पेश होने के बाद से ही मीडिया और मध्यवर्गीय हलकों में टैक्स में छूट और राजकोषीय घाटे (फिस्कल डेफिसिट) को कम रखने के सरकारी प्रचार का ख़ूब शोर सुनाई दे रहा है । लेकिन राजकोषीय घाटे को कम करने के नाम पर मोदी सरकार द्वारा जनता की बुनियादी ज़रूरतों मसलन खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार आदि ज़िम्मेदारियों से भी हाथ खींच लेने पर कहीं कोई चर्चा ही नहीं हो रही है। विकसित भारत बनाने के लिए ज्ञान (GYAN: Garib, Youth, Annadata and Nari) के विकास पर ध्यान केन्द्रित करने जैसी लफ्फ़ाज़ियों की आड़ में छात्रों, नौजवानों, मजदूरों, ग़रीब किसानों, आंगनबाड़ी और आशा कर्मियों सहित देश की मेहनतकश आबादी के हितों पर मोदी सरकार ने एक बार फिर फ़ासीवादी हमला बोल दिया है। ऊपरी तौर पर देखने पर ऐसा लग सकता है कि इस बार शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर बजट बढ़ाया गया है लेकिन जैसे ही थोड़ा गहराई में उतर कर इस बढ़ोत्तरी को महंगाई दर से प्रतिसन्तुलित करते हैं, तत्काल ही स्थिति साफ़ हो जाती है।
अपने भाषण के दौरान निर्मला सीतारमण ने कहा कि मोदी सरकार ग़रीबी उन्मूलन, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने और सस्ती व व्यापक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करके ‘विकसित भारत’ हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध है। उन्होंने विकसित भारत हासिल करने के लिए अर्थव्यवस्था में निवेश के साथ-साथ लोगों में निवेश ‘investing in people’ को एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप के रूप में रेखांकित किया। लेकिन वास्तविकता यह है कि ‘investing in people’ यानी शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, मनरेगा से लेकर जनकल्याण के हर मद में वास्तविक कटौती की गयी है।
केन्द्रीय बजट 2025-26 में शिक्षा मंत्रालय को 1,28,650.05 करोड़ रुपये से अधिक आवण्टित किया गया है, जो 2024-25 के 1.14 लाख करोड़ रुपये के संशोधित अनुमान से आभासी तौर पर अधिक है। एक बात ध्यान देने वाली है कि वित्तीय वर्ष 2024-25 की तुलना में वित्तीय वर्ष 2025-26 के कुल बजट में 7 फ़ीसदी से ज़्यादा की वृद्धि हुई है वहीं शिक्षा मंत्रालय को आवण्टित बजट में लगभग 6.65 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। मतलब साफ़ है कि कुल बजट की तुलना में शिक्षा बजट में सापेक्षिक कमी आयी है। शिक्षा पर आवण्टित बजट को अगर महंगाई दर और रुपये के अवमूल्यन से प्रतिसन्तुलित किया जाय तो वास्तविक बजट पिछली संशोधित बजट की तुलना में कम हुआ है।
इस वित्तीय वर्ष में स्कूली शिक्षा के लिए आवण्टित बजट 78,600 करोड़ है जो पिछले वित्तीय वर्ष के अनुमानित ख़र्च 73,000 करोड़ से 7.6 फ़ीसदी ज़्यादा है। एक बात ग़ौर करने वाली है कि शासन-प्रशासनिक मशीनरी और शिक्षा माफियाओं के बीच तमाम बन्दरबाँट के बाद स्कूली शिक्षा पर 68000 करोड़ रुपये ही ख़र्च किया जा सका। यह सब उस देश में हो रहा है जहाँ सरकारी स्कूली शिक्षा में ना तो मानकों के हिसाब से शिक्षक हैं ना ही इंफ्रास्ट्रक्चर! देशभर के सरकारी स्कूलों में 12 लाख से अधिक शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं, लाखों की संख्या में स्कूल एक अध्यापक के भरोसे संचालित हो रहे हैं जहाँ छात्रों को भेड़-बकरियों के जैसे एक ही कक्षा में ठूस दिया जाता है। इससे भी बुरी बात यह है कि सरकार द्वारा नियुक्त लगभग 40% शिक्षकों के पास उचित योग्यता नहीं है। आँकड़ों के मुताबिक़ देश के क़रीब 75 फ़ीसदी विद्यालयों में कम्प्यूटर नहीं है, 25 फ़ीसदी से अधिक विद्यालयों में लाइब्रेरी तक की सुविधा नहीं है और लगभग 13 फ़ीसदी स्कूलों में शुद्ध पेयजल की व्यवस्था नहीं है। ऐसे भयंकर स्थिति में स्कूली शिक्षा पर आवण्टित बजट तक ख़र्च ना करना मोदी सरकार का सरकारी शिक्षा के प्रति उपेक्षा को ही दर्शाता है। ऐसे में मोदी सरकार के हालिया बजट में अटल टिंकरिंग लैब्स और डिजिटल कनेक्टिविटी जैसी घोषणायें महज जनता को दिया जाने वाला मीठा ज़हर है, ताकि लोग इन बड़े-बड़े शब्दों में उलझकर असली सवालों को उठाएं ही ना। जहाँ इंफ्रास्ट्रक्चर की स्थिति इतनी लचर हो वहां ऐसी सभी घोषणायें लफ्फ़ाज़ी साबित होती हैं और भ्रष्टाचार के नये रस्ते खोलती हैं।
उच्च शिक्षा की बात करें तो निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में बताया कि अगले वर्ष मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों में 10,000 अतिरिक्त सीटें जोड़ी जायेंगी और अगले पाँच वर्षों में 75,000 सीटें जोड़ने का लक्ष्य है। उन्होंने आगे कहा कि हमारी सरकार ने 10 वर्षों में लगभग 1.1 लाख यूजी और पीजी सीटें जोड़ी हैं, जो 130% की वृद्धि को दर्शाता है। निर्मला सीतारमण एक बात बताना भूल गयीं कि सीटों में यह वृद्धि सरकारी कॉलेजों में होगी या प्राइवेट कॉलेजों में! एमबीबीएस की कुल सीटों में से 48 फ़ीसदी सीटें निजी मेडिकल कॉलेजों में हैं जहाँ की सालाना फ़ीस 60 लाख से 1.2 करोड़ के बीच है। अभी की स्थिति यह है कि साल दर साल बढ़ती फ़ीस की वजह से देश की आम ग़रीब और मध्यवर्गीय आबादी अपने बच्चों को सरकारी मेडिकल कॉलेजों में भेजने का सपना भी नहीं दिखा पा रही है। दूसरा और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यदि सीटें 130% बढ़ी हैं, तो क्या शिक्षकों और इंफ्रास्ट्रक्चर में भी यह बढ़ोत्तरी प्रतिबिम्बित हुई है? इसका जवाब है नहीं! 2014 में यूजी पाठ्यक्रमों के लिए 357 मेडिकल कॉलेजों में मानकों के हिसाब से पहले भी पर्याप्त शिक्षक और इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं था लेकिन पिछले 10 सालों में यह अन्तर तेजी से बढ़ा है। अभी की स्थिति यह है कि मानकों के मुताबिक़ शिक्षकों की कमी दो तिहाई तक पहुँच गई है। 130% की वृद्धि का आँकड़ा दिखाकर मोदी सरकार वाहवाही लूटने में लगी हुई है। इस वाहवाही की क़ीमत देश की 140 करोड़ जनता की स्वास्थ्य से समझौता है।
रोज़गार पाना आज छात्रों-नौजवाओं के समक्ष जीने-मरने का सवाल बन गया है। लेकिन पूरे बजट से बेरोज़गारी का मुद्दा लगभग ग़ायब ही है। जहाँ कहीं भी इसका प्रतीकात्मक तौर पर जिक्र भी हुआ है वहाँ भी नियमित प्रकृति की नौकरियों की जगह ठेके, संविदा की बात की गयी है। बजट दस्तावेज़ के मुताबिक़ विनिवेश और परिसम्पत्ति मुद्रीकरण (सामान्य भाषा में निजीकरण) के ज़रिये 47,000 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा गया है। हालाँकि दस्तावेज में विशिष्ट वार्षिक विनिवेश की बात नहीं कही गयी है। 2015 के बाद से ही मोदी सरकार बहुत चालाकी के साथ निजीकरण के जरिये फण्ड इकठ्ठा करने का लक्ष्य तो बना लेती है लेकिन यह नहीं बताती है कि किस विभाग के निजीकरण के ज़रिये यह फण्ड इकठ्ठा होगा। ऐसे में यह साफ़ है कि आने वाले दिनों में निजीकरण की रफ़्तार और तेज़ होने वाली है और इस प्रक्रिया में सरकारी विभागों में नौकरियाँ तेजी से कम होने वाली है। संविदा और ठेका प्रथा को बढ़ावा दिया जायेगा और नियमित प्रकृति की नौकरियाँ ख़त्म हो जायेंगी यानि नौकरियों की तैयारी कर रहे छात्रों के लिए बेरोज़गारी का संकट और भयानक होने वाला है।
गिग वर्कर्स के लिए आइडेण्टिटी कार्ड जारी करने की घोषणा को मीडिया में गिग वर्कर्स को मिले अधिकार आदि रूपों में प्रचारित किया जा रहा है। इस कानफोडू प्रचार के बीच गिग वर्कर्स के असली मुद्दों (मसलन गिग वर्कर्स को श्रम कानूनों के मातहत लाना, काम के घण्टों का निर्धारण, न्यूनतम मज़दूरी आदि) को विमर्श से ही गायब कर दिया गया है। मतलब साफ़ है कि एक करोड़ से ज़्यादा गिग वर्कर्स के लिए मोदी सरकार की झोली में केवल झुनझुना है। जिसे मीडिया और सरकारी बुद्धिजीवी ज़ोर-ज़ोर से बजा रहे हैं। मोदी सरकार ने इतनी बड़ी आबादी को बिना किसी श्रम कानून की सुरक्षा के देशी-विदेशी पूँजीपतियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया है।
इसी तरह वित्त मन्त्री निर्मला सीतारमण ने लगातार दूसरी बार अपने बजट भाषण में मनरेगा का उल्लेख तक नहीं किया। इस बार योजना के लिए 86,000 करोड़ की राशि आवण्टित की गयी है जो कुल बजट का केवल 0.17 फ़ीसदी के आस-पास है। वित्तीय वर्ष 2024-25 में इस योजना पर आवण्टन कुल बजट का 0.26 फ़ीसदी था। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही मनरेगा के बजट में कटौती का दौर चल रहा है। वैसे तो मनरेगा एक्ट साल में 100 दिन रोज़गार की गारण्टी देता है लेकिन हकीक़त यह है की पिछले 5 सालों में मनरेगा योजना के तहत साल में औसतन 40-45 दिन प्रति परिवार रोज़गार मिला है। मौजूदा मज़दूरी दर पर (जोकि बेहद कम है) वित्तीय वर्ष 2025-26 के लिए आवण्टित बजट से प्रति परिवार सालाना 33-34 दिन ही रोज़गार मिल पायेगा। मतलब ग्रामीण इलाकों में बेरोज़गारी की स्थिति और भी भयंकर होने वाली है।
कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के लिए आवण्टित राशि को वित्तीय वर्ष 2024-25 के संशोधित अनुमान से 3,905.05 करोड़ रुपये कम 1,27,290.16 करोड़ कर दिया गया है। उर्वरक विभाग के आवण्टन में भी 26,500.85 करोड़ की कटौती की गई है, जिसका सीधा असर उर्वरक सब्सिडी पर पड़ने वाला है। उर्वरक सब्सिडी में कटौती से ग़रीब और सीमान्त किसानों की लागत बढ़ेगी और इनके खेती से उजड़ने की रफ़्तार तेज हो जायेगी।
अन्य सोशल सेक्टर की स्थिति भी कमोबेश यही है। शिक्षा, स्वास्थ्य, जल और स्वच्छता, पोषण, सामाजिक सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण विकास, कौशल विकास, खेल और संस्कृति, आदिवासी और अल्पसंख्यक मामले और शहरी गरीबी उन्मूलन को सम्मलित रूप से सोशल सेक्टर कहा जाता है। आँकड़ों के मुताबिक़ साल दर साल सोशल सेक्टर के बजट में कटौती की जा रही है। 2014-15 से 2019-20 के दौरान केन्द्र सरकार द्वारा सोशल सेक्टर पर होने वाला ख़र्च केन्द्रीय बजट का औसतन 21% और जीडीपी का 2.8% था। इस बार बजट में सोशल सेक्टर पर अनुमानित ख़र्च कुल बजट का लगभग 19 फ़ीसदी और जीडीपी का 2.7 फ़ीसदी रह गया है। मतलब साफ़ है कि फ़ासीवादी मोदी सरकार जनकल्याण के मदों में कटौती कर पूँजीपतियों की क़र्ज़ माफ़ी में और सरकारी क़र्ज़ को भरने में लगा रही है। जिसे राजकोषीय घाटे को कम करने के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। सरकारी बुद्धिजीवी, गोदी मीडिया और इसके प्रभाव में छात्रों-नौजवानों का एक हिस्सा भी इस बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बन बैठा है। अगर वाकई में सरकार राजकोषीय घाटे को लेकर चिन्तित है तो उसे सबसे पहले पूँजीपतियों को दी जाने वाली बेलआउट पैकजेज बन्द करना चाहिए। 2017 में अरुण जेटली के वित्तमंत्रित्व काल में कॉरपोरेट करों में की गयी कमी (2017 की बजट में कॉर्पोरेट टैक्स 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत कर दिया गया था) और सम्पत्तिवानों पर लगने वाले सम्पदा कर (वेल्थ टैक्स) को पूरी तरह ख़त्म करने के फ़ैसले को वापस लेना चाहिए। लेकिन ये सरकारी बुद्धिजीवी और गोदी मीडिया इस सवाल को कभी नहीं उठायेंगी क्योंकि यह उनके आकाओं के हितों से जुड़ा हुआ सवाल है।
एक और बात समझने की है कि हर पूँजीवादी लोकतन्त्र पूँजीपति वर्ग के तानाशाही का रूप होता है। पूँजीवादी राज्य मशीनरी का एक प्रमुख अंग सेना और पुलिस की व्यवस्था होती है। इसलिए देश की सुरक्षा, घुसपैठियों से आज़ादी और आतंकवाद का फ़र्ज़ी हौव्वा खड़ा कर पूँजीवादी राज्य अपने ख़र्चों का एक बड़ा हिस्सा सामरिक ताकत पर लगाता है। यह रुझान फ़ासीवादी दौर में और भी तेज़ हो जाता है क्योंकि फ़ासीवादी सत्ता जनउभारों से बुरी तरह डरती है। इसलिए किसी भी सम्भावित जनउभार को कुचलने के लिए सेना-पुलिस को अत्याधुनिक हथियारों और तकनोलॉजी से चाक-चौबन्द करती रहती है। जिसे हम पिछले एक दशक के दौरान बजट आवण्टन में भी देख सकते हैं। पिछले एक दशक के दौरान रक्षा बजट में 152% की आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। वित्तीय वर्ष 2015-16 से 2025-26 के बीच रक्षा बजट 2.46 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 6.8 लाख करोड़ रुपये हो गया है। मोदी सरकार इस बजट का बड़ा हिस्सा नागरिक निगरानी और हथियारों के ख़रीद- फ़रोख़्त पर ख़र्च करने वाली है। यह बात दीग़र है कि इस ख़रीद- फ़रोख़्त के साथ भ्रष्टाचार भी नाभिनालबद्ध है। एक बात तो साफ़ है कि जनता के खून-पसीने की कमाई की नेताओं, पूँजीपतियों, नौकरशाहों के बीच खुल्लमखुल्ला बन्दरबाँट होने जा रही है।
उपरोक्त तथ्यों और विश्लेषण से साफ़ ज़ाहिर है कि आने वाला साल छात्रों-नौजवानों समेत देश की मेहनतकश आबादी के लिए महँगाई-बेरोज़गारी ही लेकर आने वाला है। जनता की गाढ़ी कमाई को तमाम अप्रत्यक्ष करों के जरिये लूट कर पूँजीपतियों के हवाले किया जायेगा। मोदी सरकार के पूँजीपरस्त बजट में जनता को केवल लोकलुभावन लफ्फ़ाज़ियाँ ही हासिल हुई है और सारी मलाई देश के पूँजीपतियों के हिस्से में डाल दी गयी है।