दिशा छात्र संगठन और इलाहाबाद सिनेफाइल्स की ओर से साप्ताहिक फ़िल्म शो और परिचर्चा का आयोजन

दिशा छात्र संगठन और इलाहाबाद सिनेफाइल्स की ओर से साप्ताहिक फ़िल्म शो और परिचर्चा का दौर एक बार फिर शुरू कर दिया गया है। कोविड-19 के भयंकर संक्रमण की वजह से यह सिलसिला टूट गया था। अब स्थिति कुछ सामान्य होने पर इसे एक बार फिर से शुरू किया जा रहा है। इसके तहत आज ‘एक डॉक्टर की मौत’ फ़िल्म दिखाई गई और फ़िल्म के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई।


यह फ़िल्म नौकरशाही, अफ़सरशाही और राजनीति के चक्कर में बर्बाद होती भारतीय प्रतिभाओं को बेहद अच्छे ढंग से चित्रित करती है। फ़िल्म एक ऐसे डॉक्टर को लेकर बनी है जो कुष्ठ रोग को जड़ से मिटा देने के लिए वैक्सीन पर रिसर्च कर रहा है लेकिन पूरा का पूरा रिसर्च मुनाफा और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षी व्यावसायिक चिकित्सक समाज, नौकरशाही की भेंट चढ़ जाती है। फ़िल्म में पंकज कपूर ने एक वैज्ञानिक की भूमिका को बखूबी निभाया है और जिसका साथ न दोस्त देते है, न प्रशासन और न ही शासन और अंत एक प्रतिभा की बर्बादी के रूप में होता है। यह फ़िल्म डॉ० सुभाष मुखोपाध्याय के जीवन पर आधारित है। डॉ० सुभाष मुखोपाध्याय, उसी वैज्ञानिक का नाम है, जिसने IVF को लेकर बहुत काम उसी दौर में कर लिया था, जब डॉ० रॉबर्ट एडवर्ड, इंग्लैंड में इसी विषय पर काम कर रहे थे, लेकिन हमारे देश की व्यवस्था ने, डॉ० सुभाष मुखोपाध्याय का साथ नहीं दिया। पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े के लिए हर पल ऐसी अनेकों प्रतिभाओं की बलि दे दी जाती है। शिक्षा-चिकित्सा के व्यावसायीकरण ने भारतीय शोध कार्यों में दिन प्रति दिन नए-नए अवरोध खड़ी करती जा रही है। एक व्यापक छात्र आबादी शोध कार्यों में भविष्य की कोई सुरक्षा न होने के कारण अपनी पूरी ऊर्जा एक नौकरी की तलाश में लगा देती है। और दिन प्रतिदिन घटती नौकरियाँ छात्रों-नौजवानों को हताशा, निराशा, अवसाद और मौत के मुंह में धकेल रही है।


नई शिक्षा नीति में साफ-साफ प्रावधान है कि विश्वविधालय फण्ड के लिए निजी कम्पनियों के सामने हाथ फैलाएं यानी पहले से ही संकटग्रस्त भारतीय शोध संस्थान को अब अम्बानी, अडानी, टाटा और बिड़ला की कम्पनियों की रिसर्च एंड डेवलपमेन्ट सेल के तौर पर काम करेंगी। लूट पर टिके व्यवस्था में विज्ञान शासक वर्ग के हाथों में कैद हो जाता है और यह जनता की सेवा करने की जगह पर मुनाफ़ा पैदा करने वाले औजार में बदल जाता है। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनियाभर के 20 फीसद वैज्ञानिक केवल और केवल हथियारों के शोध में लगे हुए है। मनुष्यता की सेवा करने वाला विज्ञान आदमखोर पूंजीपतियों के हाथों में सिमटकर मनुष्यता की कब्र खोद रहा है।
विज्ञान को क्रान्ति के जरिये पूंजीपति वर्ग से हाथों से आज़ाद करके ही इसे मुनाफ़े की बेड़ियों से आज़ाद किया जा सकता है।