उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा हाल ही में उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियन्त्रण, स्थिरीकरण एवं कल्याण) बिल – 2021 का प्रारूप जारी किया गया है। वास्तव में इस बिल के रूप में उत्तर प्रदेश सरकार प्रदेश की जनता के जनवादी अधिकारों पर हमला करने का मसौदा लेकर आयी है। बिल में दो से अधिक बच्चे पैदा करने वालों को सरकारी नौकरियों में आवेदन करने, चुनाव लड़ने पर रोक लगाने और सरकारी योजनाओं से वंचित करने का प्रस्ताव रखा गया है।
ग़ौरतलब है पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों द्वारा व्यवस्था जनित संकटों, जैसे ग़रीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी आदि के लिए जनता को ही ज़िम्मेदार ठहराये जाने के लिए जनसंख्या में वृद्धि को एक हथकण्डे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। साथ ही फ़ासीवादी भाजपा और संघ परिवार पिछले लम्बे समय से जनसंख्या में वृद्धि और मुस्लिम आबादी की जनसंख्या बढ़ने के मिथक का प्रचार करके साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति करते रहे हैं।
बिल में कहा गया है कि प्रदेश में संसाधनों की बहुत कमी है और समान वितरण तथा सतत विकास को बढ़ावा देने के लिए राज्य की जनसंख्या को नियंत्रित करना, स्थिर करना ज़रूरी है। ज़ाहिर है कि जनसंख्या को स्थिर करके समान वितरण और सतत विकास की बात सिर्फ़ एक सफ़ेद झूठ है। अगर अभी की स्थिति में बात करें तो उत्तर प्रदेश अनाज उत्पादन के मामले में देश के अग्रणी राज्यों में है। उत्तर प्रदेश गेहूँ, गन्ना के उत्पादन में पहले नम्बर पर और चावल के उत्पादन में दूसरे नम्बर पर है। यह अनाज एफ़सीआई के गोदामों में सड़ता रहता है, चूहे खाते हैं और शराब बनाने वाली कम्पनियाँ सस्ते दामों में ले जाती हैं। लेकिन दूसरी ओर रोज भूख और कुपोषण से हजारों मौतें हो जाती हैं। प्रदेश और देश में जगह-जगह प्राकृतिक संसाधन बिखरे पड़े हैं। आज़ादी के बाद से अब तक देश में खाद्यान्य, खनन और उद्योगों में आबादी की तुलना में कई सौ गुना की वृद्धि हो चुकी है। सांसदों-विधायकों की ऐय्याशी, चुनावी रैलियों में पानी की तरह बहाये जा रहे पैसे का कोई हिसाब ही नहीं है। लेकिन जब जनता की बात आती है तो संसाधनों की कमी पड़ जाती है। अगर इन पैसों और संसाधनों का ठीक से इस्तेमाल किया जाये तो करोड़ों नौजवानों को रोज़गार दिया जा सकता है। इतना ही नहीं, हर सरकारी विभाग में बड़े पैमाने पर पद खाली पड़े हैं, लेकिन इन पदों को भरने के बजाय सारा काम संविदा और ठेके पर कराया जा रहा है। पूरे का पूरा विभाग ही पूँजीपतियों की झोली में डाला जा रहा है। अगर इन खाली पदों को भरा जाये तो लाखों नौजवानों को रोज़गार दिया जा सकता है। सेण्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट, जिसको जारी रखने के लिए फ़ासिस्टों ने कोरोना महमारी के दौरान विशेष क़ानून तक बना दिया, में खर्च किये जा रहे रु. 20,000 करोड़ में, रु. 100 करोड़ की लागत वाले 200 अस्पताल बनाये जा सकते हैं। लेकिन इन सब बातों पर पर्दा डालने के लिए जनसंख्या का हौव्वा खड़ा किया जाता है।
नेशनल फ़ेमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक़ भारत में भारत में प्रजनन दर 2.2 प्रतिशत थी, जो समय के साथ घटती जा रही है। वास्तव में प्रजनन दर का 2.1 प्रतिशत होना जनसंख्या के स्थिर होने का मानक माना जाता है। इसी तरह के आँकड़े कई और सर्वे दिखा चुके हैं। साफ़ है कि देश की जनसंख्या आने वाले सालों में घटेगी। इसी तरह संघ परिवार और भाजपा द्वारा मुस्लिम जनसंख्या बढ़ने के झूठ की सच्चाई यह है कि 1961 से 2011 के बीच में हिन्दू आबादी की वृद्धि दर में क्रमशः 8% और 10% की कमी आयी। आँकड़ों के आधार पर बहुत से सर्वेक्षणकर्ताओं ने यह अनुमान लगाये हैं कि 2071 तक हिन्दू तथा मुस्लिम आबादी की जनसंख्या वृद्धि दर बराबर हो जाएगी। लेकिन संघ परिवार अपने आदर्श हिटलर और मुसोलिनी जैसे फ़ासिस्टों के नक्शे क़दम पर चलते हुए इस फ़ासीवादी मिथ्याप्रचार को हवा देता रहता है।
वास्तव में जनसंख्या को सभी समस्याओं का कारण बताकर जनता के सिर पर ठीकरा फोड़ने का काम पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा बहुत लम्बे समय से किया जा रहा है। 18वीं सदी में माल्थस द्वारा दिए गए तर्क का भ्रम फ़ैलाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है कि बढ़ती हुई जनसंख्या के अनुपात में उत्पादन में होने वाली वृद्धि बहुत कम होती है। माल्थस ने इस समस्या का बहुत ही मानवद्रोही हल दिया था जो कि अमीर तबकों व शासक वर्ग व उनके तलुआचाट बुद्धिजीवियों को बहुत भाता है। माल्थस का हल यह था कि महामारी आदि को रोकना नहीं चाहिए बल्कि महामारियों से होने वाली आम जनता की मौतों से व्यवस्था सही रहेगी। आज के वर्तमान फासीवादी उभार के दौर में यह तर्क नस्ल, धर्म आदि के नाम पर आबादी के क़त्ले-आम की तरफ ले जाता है। वास्तव में माल्थस का यह सिद्धान्त आँकड़ों की हेराफ़ेरी और झूठ पर आधारित था।
आज पूरी दुनिया भर में आबादी में बढ़ोत्तरी का एक कारण ग़रीबों द्वारा ज्यादा बच्चा पैदा करना नहीं, बल्कि मृत्यु दर में आनेवाली कमी है। मसलन, 1950-55 में दुनिया भर का औसत संभावित जीवन तक़रीबन 46 साल हुआ करता था, जो कि 2000-05 में 65 साल हो गया। कई देशों में आबादी बढ़ोत्तरी दर शून्य से कम है। जिस रफ़्तार से आबादी से बढ़ रही है, उस रफ़्तार से 2040 तक आबादी करीब 7.6 अरब तक पहुंचेगी। उसके बाद यह घटेगी और 21वीं सदी के अंत में 5 अरब रह जायेगी। जिसमें बच्चे और नौजवान बहुत कम होंगे, बुजुर्गों की संख्या बहुत ज्यादा होगी। आज इन्हीं वज़हों से जापान और चीन जैसे देशों में जनसंख्या नीति में बदलाव किये गए हैं।
सच्चाई यह है कि भुखमरी, कुपोषण, बेरोज़गारी सहित सभी समस्याओं की असली वज़ह लूट और मुनाफ़े पर टिकी यह पूँजीवादी व्यवस्था है। इसलिए इन समस्याओं को हमेशा के लिए ख़त्म करने के लिए इस लुटेरी व्यवस्था को तबाह करके इसकी जगह पर समतामूलक समाज का सपना बनाने के लिए एकजुट होना होगा, जिसका सपना शहीदे-आज़म भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारियों ने देखा था।
आज छात्रों-युवाओं को न केवल जनता के बीच में जाकर जनसंख्या के सवाल फैलाये गये भ्रम को साफ़ करना चाहिए बल्कि संगठित होकर इस जनविरोधी बिल का विरोध करना चाहिए और अपनी एकजुटता के दम पर समान शिक्षा-सबको रोज़गार, भोजन, स्वास्थ्य और आवास के बुनियादी अधिकारों के लिए सरकार को मजबूर करना चाहिए।
दिशा छात्र संगठन
नौजवान भारत सभा